पृष्ठ:राजविलास.djvu/१७१

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राजविलास । करो कलह हम सत्य के सौंपा धन संपूर ॥ ७ ॥ लेहु निमिष विश्राम लटि आए हो तुम अज्ज ॥ कल्हि 'सही हम तुम कलह कही बहुरि कमधज्ज ॥६॥ बित्यौ बासर बत्तही परी निसा तम पूर ॥ छल करि के तब रिपु छलन सजे रहबर सूर ॥ ८ ॥ ॥ कवित्त ॥ अद्ध रयनि तम अधिक छलन रिपु इक्क कियो छल । संढ पंच सय श्रृग जोइ युग युगह लाल झल ॥ हंकिय सो वर हेट उभय चर अरि दल अभि- मुष । अप्प चढ़े दिशि अवर लिये बर कटक इक्क लष ॥ पेखिय चिराक प्रद्योत पथ संड समुष धाए असुर ॥ उत तें सुवीर अजगैब के परे प्राइ अरि सेन पर ॥ १००॥ छन्द भुजंगी। .. परे धाइ अरि सेन परि रोस पूरं। सजे सेन सायुद्ध रहोर सूरं ॥ किये कंठ लंकालि कंकालि कूरं । झनकी यु षगौ बजी झाक झूरं ॥ १०१ ॥ " मची मार मारं जनं भूख मूखे । मिले जानि गो मंडलं सीह भूखे। सरं सोक बज्जी नभं ढंकि सारं। भटक्क घनं सोर भाराब भारं ॥ १०२ ॥ घटक धरा धुन्धरं पूरि धोमं । बढ़ बीर बीरार संलग्गि ब्योमं ॥ फुरे बोध हत्थं महा कूह