पृष्ठ:राजविलास.djvu/१७२

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राजविलास । फुट्टी । इतें आसुरी सेन पच्छी उलट्टी ॥ १०३ ॥ .. धये धींग धींग धरालं धमक्के । चहों कोद ते लोकपालं धमक्के । जपे इट्ठ जप्पं जुरे जोध जाधं । करो कंक बंके भरे भूरि क्रोधं ॥ १०४ ॥ मुरे सार सारं ननं मुष्ष मोरे । पटे टहरं वान सन्नाह फोरे ॥ धरे शीश नच्चें कमंधं प्रचंडं । मही भिन्न भिन्न रुरे रुड मुडं ॥ १०५ ॥ लरेंदोन के शीश पच्छ लटक्कें । कहूं कंठ ज्यों हड्ड जुडे कटंके । घने घाउ लग्गे किते बीर घूमें । झुकते धुकंते किते फेरि झूमें ॥ १०६ ॥ हहक तहक्क किते हायहायं । परे घंषि पित्तं झरे हत्थ पायं । परे दीप मझे किते. ज्यों पतंगा। उछ नि छंछे करे होम अंगा ॥ १०७ ॥ भभक्त श्रोनं कटे के भसुडं। बिना दंन दंती परे है बिहंडं ॥ बहू बान बेधे कुनैनन्ति बाजी । गए चून है पैदलं मीर गाजी ॥ १०८ ॥ शिवें संग है ऊतमंगा सरोजा । चवंसहि लागी टगी चित्त चोजा । पिये श्रोन पानं बहे बाह पूरं । बहे बाहु जंघा भुजंतं बिरूरं इ १०८ ॥ बिना सत्य केते परे लत्य बत्थें । र रोस रत्ते रूपे पाइ हत्थे ॥ मंचे मुठ युद्ध मनौं मल्ल मल्ल । अरे मत्त माहिष्ष ज्यों द्वै अडुल्लं ॥ १० ॥