पृष्ठ:राजविलास.djvu/१९१

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राजविनाम । १६४ ॥ कवित्त॥ कग्यि अहो निसि कूच साहि अजमेर संपत्तह । बंकागढ़ विंटुलिय राज पट महल सुरत्तह ॥ रहे तत्य असुरेस बिकट चौकी बैठाइय ॥ परिय कटक गढ़ परधि जलधि ज्यों दीप जनाइय ॥ निसु नीब तत्य आसुर नृपति जाने हिंदू जोर बर । रबि बंश राण राजेश का शरन गह्यो बर रहवर ॥ १॥ ॥दोहा॥ तपो अधिक तुरकेश तहँ सुनि हिन्दूपति नाम । कलमलि उर कर मिंझि कहिं, हा हिय रही सुहाम ॥२॥ हम से लरि भिरि रक्खि हठ, गए सुतजि धर गेह । क्यों करि रहिहें इक्खिये, राण शरण अब एह ॥३॥ जहां जाइ तहां जाइ के, गहो युवतिन परि गैल । तरु तरु पत्त सुपत्त करि, सब ढंढोरों सैल ॥ ४ ॥ स्वर्गहिं सेढिय जाल जल, पर्बत गुहा प्रदीप । पनि कुदाल पाताल षिति, अरि आना अवनीय ॥५॥ ॥ कवित्त ॥ करियों मानस कोप दिन फुरमान दिग्घ गस । कैलपुरा प्रभु कद्य बढ़हि जिन सुनत बीर रस ॥ सुनहु राण राजेश साहि औरंग समक्खिय । हम सु शत्रु बहु हठी रहवर क्ये तुम रक्खिय ॥ अप्पो सुएह हम कज्ज अव के कलहंतन सद्य करु । नन रहे रह कीनहि नृपति उदय अस्त रबि चक्कतर ॥६॥