पृष्ठ:राजविलास.djvu/२०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२०० राजविलास । ध्रुव पय रोपन धनुष धर अमर सूर सु समत्थ ॥om तरकस युग २ पिट्टि तिन संपूरित सर युद्ध । कथे कत्थ नट बिकट लो दुरय न तिन रिपु युद्ध ॥१॥ तरु दल छेदे तक्कि के ब्योहिं उड़त बिहंग। बदि लाखक में दुद्यनहि बेधन बान अभंग ॥ २ ॥ प्रनमि हिंदुपति पाइ सब ठठे महलहिं ठह। मना गंग यमुना मिली सलिल समेल सुघट्ट ॥ ३ ॥ हुकम दयो तिन करन हर भारहु घाट सभार । दस दस सहस रही सु भर पिशुन न ह पैसार ॥४॥ षरच सु लेहु षजान तें ध्रुव पद रोपो धीर । रशित कि रिपु रुक्कि के मारो बड़ बड़ मीर ॥५॥ यों कहि सब अभिमानि के सबनि दये शिर पाव । अश्व कनक भूषन अषय बसुधा ग्रास बढ़ाव ॥ ६ ॥ पंच फौज तिन रचि प्रबल रहे घाट गिरि रुक्कि । श्रावन जान न लहें अरि थान २ मग यक्कि ॥ ८७ ॥ पत्तनेन बारा सु पहु गिरिवर तहँ गुरु गाढ़। भार अठारह तरु भरित अह निसि लगत असाढ़ ॥४॥ ॥ कवित्त ॥ अह निसि लगत असाढ़ नित्य बरषे तहँ नी- रद । नदी नाल नीझरन सरस बसुधा रसाल सद। चहूं ओर गुरु अचल घाट दुर्घट घन घट्टिय । बंका- गढ़ बहु बिकट नारि अरि दलन निहट्टिय ॥ पत्ते