२०६ राजविलास। ॥ दोहा॥ सोलंकी विक्रम सुभट गोपिनाह कमधज्ज । रोमी तिन घनरल तले, साहसवंत सकज्ज ॥ १ ॥ आवत जब जाने असुर, देव सूरि पुरघट्ट । रोमी द्वादस सहस दल, बल माराव विकट्ट ॥ २ ॥ नारि तहां ऑघट निपट पंचकोस परजंत । अश्व एक पथ अति क्रमें, चीटी ज्यों सुचलंत ॥३॥ दीनों आवनहु अन दल, नारि मध्य निरभार । रोके तबहु हुहाट के, पहुं निकरन पैसार ॥४॥ मारि मचाई हुहुमरद, विक्रम चालु कबीर । गोपिनाह कमधज्ज नैं, मारे बड़ बड़ मीर ॥५॥ छंद त्रिभंगी। विक्रम बलवंता रणरस रंता अति हित मंता सामंता । जे सुननि परत्ता तेजी तत्ता वसुह वदत्ता दुता । करबालऽरु कुंता हत्य फुरंता वीर बिरंता बाधंता। प्रजरंत पलित्ता जंगहि जुत्ता धम चक धुना गुरु मत्ता ॥ ६॥ रोमी मुह रत्ता घेरि सुघत्ता, भय भय भित्ता चल चित्ता । अल्लह उचरंता असुर उधंता, खब्बड़ खंता मदमत्ता ॥ तक गिरि गत्ता शरण असत्ता मन सुमिरत्ता तिय पुत्ता। विसरे सुधि वत्ता के तन छित्ता तर तरु लित्ता विलपत्ता॥७॥
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