पृष्ठ:राजविलास.djvu/२१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२१० राजविलास । उड़ि श्रोन छिछि अपार, बहि चले रत्त प्रनार ॥१३॥ भल हलत सिलह सभान, झट उझट बज्जि अमान । किलकार बीर कुकंत, हलकार केक हकंत ॥ १४ ॥ कटि शीश नचत कमंध, ज्यों फिरत नर जाचंध । कटकंत हड्ड कटक्क, पनकंत पग्गि झटक्क ॥ १५ ॥ भभकंत इभ्भ भKड, बहिरत्त दंड बिहंड । हय नरनि परि संहार, हरपंत हर रचिहार ॥ १६ ॥ गिद्धिनिय अरु गोमाय, पल लेइ केइ पुलाय ॥ तुटि टोप तुबक रु बान, कोदंड कुंत क्रपान ॥ १७ ॥ चोसहि पीवत चोल, भरि भरि सुपत्र अलोल । बिहसंत बीर बेताल, कलिकाल झाल कराल ॥ १८ ॥ अरि मित्र अप्पन लान, तन परत सुद्धि सयान । हहरंत के मुख हाय, लगि जानि ग्रीषम लाय ॥१८॥ तरफरत के अधतंग, असि छिन्न भिन्न मुझंग। संहरिय प्रासुर सेन, जनु परिय सिंह सुएन ॥ २० ॥ अटक्यो न किहि मुष प्राइ, बर बीर धार बलाइ । चहुवांन रिन चित चंड, अति सबल सकज अखंड ॥२१॥ निकरे सु अरिन निहत्ति, अषियात अचल सुकित्ति । राणा महाराजेश, सनमोन कोन विशेश ॥ २२॥ ॥ कवित्त ॥ सनमानिय सुबिशेष दिए बर ग्राम दोय दस । सोवन साकति अश्व सरस शिरपाव जरकस ॥ कंक बंक करवाल कनक नग जरित कटारिय । बीरा प्रवर