पृष्ठ:राजविलास.djvu/२१९

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२९९ राजविलास । चढ़ केसरि सिंह सुकंक बर ॥ त्रयबेनि सलित ज्यों सेन तिहुं उलटि जंग असुरान पर ॥ ६ ॥ बीर बैर बिड्डरिय भीर उम्भरिय रोस भर । सिंधु राग संभरिय धोम धुन्धरिय ब्योम धर ॥ साई नाम संभरिय सद्द संघरिय सुत्रंबक । धक्क हक्क धम चक्क उदरि आसुर झक उझझक ॥ सुडाल काल लंकाल सम झंड २ देते झपट । रावत्त राण राजेश के लाह छोह पावक लपट ॥ ७॥ दुवह ठट्ठ ढमुट्ठ झुट्ठ मारूड़ जुझारह । मंडि मार ढक चार बज्जि बैरिन शिर सारह ॥ बरसि बान दुरि भान रेनु नभ उज्झिर डंबर । कल कल मचि मचि कह जहां कबिलान उझझर ॥ तोबा करंत हहरंत हिय चूक भंति रन बन घुसत ॥ रावत्त मत्त महसिंघ मुख शत्रु सेन न धरंत सत ॥ ८॥ छंद गीतामालती। धसमसिय धर गिर शिहर उद्धसि बीर गुर गस उभ्भरे । कलकलिय परि मचि कूह कलकल झलल बिज्जुल उग्घरे । झटझटिय बजि रिन झाक झरझट त्रिघट घन घट तच्छयं ॥ महसिंघ वंक उमत्त रावत बैरि करन बिभत्ययं ॥४॥ चल प्रचल,अरि दल सकल चल दल होत रल तल सामुहें ॥ झलमलत सिलह स्टोप झलमल चपल