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पृष्ठ:राजविलास.djvu/२२१

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२१४ राजविलास । बिबि पंड वंड विहंड बाहू मित्यि मत्यय संभिरे। लसि लोह छोर सुरत्त लोयन बीर रस बर बिस्तरे ॥ घट त्रिघट घाट विघाट धाइय धुरिय घन घन घुघले। रघु चोंड हर गुरु रतन रावत रिनहि रिपुदल रलतले ॥ १५ ॥ भभकंत इभ्भ भKड तुंडनि प्रचलि श्रोन मनालयं ॥ ढरि ढाल लाल सुपीत नेजा ढंग मिलि ढकचालयं । घुमंत असि छक विछक घाइल टुट्टि खप्पर टल टले ॥ रघु चोंड हर गुरु रतन रावत रिनहि रिपुदल रलतले ॥ १६ ॥ . लटकंत किहि शिर पीठि लडलट तदपि घट थट ना घटें । असि कंक बंक उभारि अंबर फिरत टहर के फटें ॥ उडि छिछि श्रोन सजोर संमुह चोल चच्चर संचले । रघु चौड हर गुरु रतन रावत रिनहि रिपु दल रलतले ॥ १७॥ ___पय झरत रोपत कुंत धर पर लरत परत न लरयरें । जनु जनमि धर इक जंघ जनपद सूर सूरन संहरें ॥ रिण मिलित रोर सुयवन रजवट गलित गज थट गजगले ॥ रघु चोंड हर गुरु रतन रावत रिनहि रिपु दल रलतले ॥१८॥ तुटि मिलह दोए सुत्रान तुरकनि तेक तुबक तुरंगमा । धज नेज तारि झरि झंडनि झाक