पृष्ठ:राजविलास.djvu/२२३

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राजविलास। दुहिल्ल कहा कातिल्ल र सिल्लह । किं सु किन्न बनि निल्ल नेत किं पित्त सुलल्लह । सादुल्ल मल्ल एकल से हए भल्ल जे पल्ल जिन । रावत्त मत्त महसिंघ मुष रहेन को आसुर मुरित ॥ २४ ॥ रावत चढ़ि रतनेश असुर दल कट्टि अपारह । रर बरि रंक करंक भूमि बल लिय भर भारह ॥ सार धार झकझार अंषि पिख्या उद्धम अति। हरवल अल्लि हुसेन भगो सुन बाबहि रन भति ॥ भय पाइ साहि दल सब भगा भगो साहिजादा डरत । पय गिरत परत लरथरत पथ धावत पल धीर न धरत ॥२५॥ उद्धं से असुरोन पान सुलतान पुरेसिय । मत्थ य बिनु किय मुगल सैद संहरे बिदेसिय ॥ पिट्टे शेष पठान लोदि विल्लोचि बिडारे ॥ भंजे भंभर भूरि सकल सरवानि संहारे । हबसी रुहिल्ल उजबक सुन- नि गक्खर भक्खरि परि गहन ॥ चहुवान राव केहरि सुचढि महारान किय मह महन ॥ २६ ॥ ॥दोहा॥ तजि पहार भग्गो तुरक, गिरत परत उरझत । घाट घाट घन घट घटतु, हिय सुहारि हहरंत ॥२७॥ कहुं सुनारि हथनगरि कहुं, कहुं रथ सिलह सभार । हय गय भर आसुरन रनि, परि गय मग संहार ॥२८॥ फागुन मास सुफरहरत, तनु यरहरूत सुशीत । सब निशि कोश पचीस लों, झागरिपु भयभीत ॥२८॥