पृष्ठ:राजविलास.djvu/२३७

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२३० रामविलाम। ॥दोहा॥ रह्यो प्रोटि पय ज्यों सरिस, म्लेच्छ ईस गहि मोन । बोल सुबोलत ना बने, शीशक चढ़ि भय सोन ॥३५॥ कवित्त । राजसिंघ महराण प्रजा पीहर प्रजपालक । प्रजाछत्र प्रजपोष प्रजामंडन प्रजधारक ॥ बरण च्यारि बर शरण दीन उद्धरण दया पर । दीनबंधु दुष हरण सकल षट दरस सुहंकर ॥ पीरंत पेखि पर प्रज प्रबल कुंअर भीम कुप्पिय कहर । बड़नगर सुढ़ासा सिद्धपुर प्रमुख सकल भंजे सहर ॥ ३६ ॥ लिखे एह परवान राज महराण भीम प्रति । प्रीति पोष संतोष सकल सनमान सरस भति ॥ कुल दीपक तुम कुंअर सबलह मरद्द धुरंधर । तजि बिदेस सुबिसेस बेगि आवहु निज मंदिर ॥ परवानह करिपर धरह तन अप्पन श्री इकलिङ्ग बर । प्रज पीड़त पिक्खी जात इह अनुकंपा उपजत उर ॥३७॥ ॥दोहा॥ चरहि जाइ दीनो चपल, कुवर हत्थ फरमान। कहि मुख बचन प्रसंस करि,बहु बिधि प्रीति बखान॥३८॥ कवित्त ॥. महाराण परवान सीस सहिबान सुशोभित । प्रनमि बंचि बिधि पाइ झुकि अनिखाइ झझकि चित ॥ पिता हुकम मुंप्रमानि दंद मुक्यो निज दारुन ।