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पृष्ठ:राजविलास.djvu/२४८

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राजविलास। २४१ गृह गृह जनहिं जन कोन गहे कप्पर सुकर । केसर कपूर मृगमद कितक इधन ज्यौं प्रजरे अगर ॥३२॥ कंसहि को कर गहें तंब गहि को तनु तोरें। करिय कहा कत्थीर जसद गंठ हि को जोरें । पाटहिं को प्रतिग्रहे सूतपट कवन सुसंचै। अंगीकर न अन्न खंड घृत गुड़ कत खंचै ॥ बहु हेम रजत मौक्तिक बिमल पन्ना पांच प्रवाल नग ॥ तुत लोक लच्छक सुलछि जह तँह लहत निधान जग ॥ ३३ ॥ जरी सूप सकलात मिश्र मुषमल रु मसज्जर । चीणी षीरोदक दुमास प्रतलस पीतांबर ॥ नारी कुंजर ल्हाइ साहि बीततु सुष मनसुष । बुलबुल. चसमा पोट पामरी युरमा बहु लष॥ दरियाइ दुलीचा चंद्रपट उत्तरपट गिनति न परत । पट कूल अमूल प्रसिद्ध पन बसु जन २ बिक्रय करत ॥ ३४ ॥ ___ भैरव बरभरु बछी मिट्ठ मलमल महमूदी । झुना सिंदली सालु सुसी सेला सानंदी ॥षासा पास अटान पंचतोरे सु प्रकारे । इकतारे श्रीसाप चीर टुकरी चो- तारे॥ स दुमामि दुतारे चौरसे झीन पोत दृति झल- मलत । बदियेऽब किते बहु बिधि बसन पयदल .पा- इनि दलमलत ॥ ३५॥ नालिकेर ज्योजा बिदाम बर दाष चिरोंजिय । पारिक पिंड षजूरि भरि मिश्री मन रंजिय ॥ मधुर २ मेवा मिठाइ घृत गुड़ अपरंपर । सकल अघाइय सेन हत्थि हय करभ अनुच्चर ॥ एलपी लवंग अहि फेन रस