पृष्ठ:राजविलास.djvu/२४९

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.२४२ राजविलास । सुंठि मरिच पीपरि प्रमुषि । सुक्रयाण सार अंबार सज धषत झार घन अग्नि मुष ॥ ३६ ॥ ___पनहिं न जिन पय हुती तिनहिं गृह भये तुरं- गम । दूत भये दारतें मिले तिन चढ़त मतंगम । दारिद जिन देषते लच्छि लच्छक तिन लीनी ॥ वा- मन जिन बपु हुते तिनहु सुषपाल सप्पनी । सपने न संपिखी सुंदरी तिन सुन्दरि युग २ मिलिय ॥ धसि नगर धार बर संहरत कनकहिं पलक निहाल किय ॥३७॥ दिन दस करिग मुकाम षग्ग बल रचि षलषं- डह । नगर धार संहारि देस मालव करि दंडह ॥ नर बहु भए निहाल लच्छि अपरंपर पाए । करि सु- बोल कंधाल उमगि उदयापुर पाए ॥ मंत्रीश सुमति महाराणं के कलह साहि सर भर करिय । अवदात यहै नित २ अचल अचल नाम जग बिस्तरिय ॥३८॥ इहिं परि धार उद्धसि बत्त बर बिश्व बखानी। मुनि श्रीरंग सुबिहान दूत मुष अव दुखदानी ॥ उर कलमलि अकलाय परयो अंदर पछितावत । किनी यहे कुमंत सकल परिजन समझावत ॥ आवै न हत्य विग्रह सुइह षुस षजान घन षुट्टए । अनमी सुराण हैं आदि के महि किन जाइ सुमिट्टए ॥ ३८ ॥ इति श्री मन्मान कबि बिरचिते श्री राज बिलास शास्त्र साह दयाल मालपद देशे द्वंद्व कृतं तद्वर्णनंनाम सप्तदशमो बिलासः ॥ १७॥