पृष्ठ:राजविलास.djvu/२५१

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२४४ राजविलासा मन मेष भंति में में करत । सुलतान अकमर साहि सुत धरनि न सुद्धपय धरत ॥ ७ ॥ तषत रवां तपनीय तुग नग जरित तरनि प्रभ । तहँ सु बइठ्ठो तपन तेज असहेज मान इत ॥ उभय पाष चामर ढरंत इतमाम अनेकह । छरीदार प्रति- हार अंग रक्षक सबिबेकह ॥ नरवे नवाब बहु पय नवत सेवत ठढ सत सहस । नित राग रंग पातुर नृतति घुरत निसाननि घन घमस ॥८॥ कबहुं लरावहिं मल्ल कबहुं मद मत्ते कुजर । पायक कबहुं प्रचंड कुंत असि नग्न सकति कर ॥ कबहुं सिंह करि कलह कबहुं डोरी डंडायुध । कबहुं सिंह बन सहल कबहुं तिय सत्य महल मध ॥ कबहूं क बग्ग बर बाटिका मलिता सलिल समूह सुख । क्रीडंत केलि नव नव सुदिन न लिहैकत ससि सूर रुष ॥८॥ ॥दोहा॥ आहि सुतन के चरित सुनि, रत्त नैन करि रोस । श्री जयसिंह कुंभार जब, गहयो षग्ग कर कोस ॥१०॥ संहरिहों दिल्लीस मुत, क्यों रहि इह इन कोट । असुर कहा हम अगए, सकल करं संलोट ॥ ११ ॥ हमहिं दयो इकलिंग हर, इह गढ़ आदि अनादि । ध्रुव सुरव्य मेवार धर पाइय भाग प्रसाद ॥ १२ ॥ तो ऽव कौन बपुरो तुरक, गढ़ रहि मंडे गेह ।