पृष्ठ:राजविलास.djvu/२५८

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राजविलास । २५१ लुब झुब बषानिये । बढि हेष २ सघ्राण बज्जत जोर सौर सुजानिये ॥ ४० ॥ नच्चत घृत तततान नट ज्यों थाल मध्ययलं गने। सकुनीन पूजतु मग्ग संगहिं गिरि उतंगहिं ना गिने ॥ पर करे नष सिष सजर पर कर समर योग सराहिये । मनु मरुत मित्र कि चित्र चित्रित चाल चंचल चाहिये४१ रग चढ़े तिन पर राव रावत अन्य गुरु लहु उम्मरा ॥ बर बीर धीर सभीर नृप भर सिलह पूर सडंबरा ॥ धन घाघ रट थट सुघट अबघट घाट की- जत दल घने । बड़ि छोह जोह सकाह कंदल कर वर देखे बनें ॥ ४२ ॥ रय भरति के घन कनक रूब अधुर्य जिन जोरा धुरा । गुरुनारि गंविन सार गोरिय तीर तर- कस तोमरा । धनु कवच त्राण कृपाण भगवति कुंत कत्ती किलकिला । सुवारि सार छतीस आयुध करण पल दल कंदला ॥ ४३ ॥ पयदल प्रचंड उदंड संडति सनध बद्ध समायुधा। रिस रोस जोस सुरत्त लोयन सद्दबेधी संयुधा ॥ पति भक्त पर दल पूर पैरत पाइ नन पच्छे परें। धसमसहि धरनि न चरन धमकनि धकनि कोर्टात धरहरें ॥४४॥ दल मध्य दिनपति.सरिस तनुद्यति कुंभर श्री जयसिंह हैं। पारुहें ईस सुषंस क्ष्य वर सकल चक्ख