पृष्ठ:राजविलास.djvu/२५९

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२१२ राजविलास । समीह हैं ॥ उतमांग चौंर ढुरंत उद्यल प्रातपत्र जराव को ॥ कवि बदछंद बदंत कीरति देवद्रुम सद भाषको ४५ दिशि विदिशि दल २ ज्यों जलधि जल अचल चलचल हे चले । षल गृहनि पलभल कुंति कल २ सलल शेति सलसले ॥ कलकलिय कच्छप पिडि कसमस धींग धसमस धावहीं। पुरतार तार प्रतार वद्यत जानि विश्व जगावहीं ॥ ४६ ॥ शिव संक सकबक इंद अकबक धीर धाता धकपके । सुर सकल सटपट चंद चटपट अरुण अटपट हकबके ॥ झलझलिय निधि रबि परिय झंषर पह उझषर पिक्खए । सर मलित सलिल समूह संकुरि वर प्रयान विसिक्खए ॥ ४ ॥ करिग पयान सकाप चम् सज्जीव चतुरंगनि । अरक बिंब भावरिय रेणु भरि गेण सार भनि ॥ उलटि जानि जल उदधि कटक भट विकट उपट यट । 'मकित मग्ग सर मुकित चकित चहुं ओर ऊटपट ॥ उरजत कुरंग बराह पर हरि धर बन पुर असम सम॥ जयसिंह कुंभार सुकरन जय चढ़ि दल बद्दल गम अगम ॥४८॥ एक अग्ग अनुसरत एक धावंत वन तजि । एक कुदावत तुरग इक्क रहवाल चाल सजि ॥ हनि हेष नासानिनाद प्रर्ति साद गेंन गजि । पर निज