पृष्ठ:राजविलास.djvu/२६०

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राजविलास। २५३ सुद्धि न परति भीति धरि रिप्पुन बन भजि ॥ उन्नत पताक पँच रँग प्रवर तिन उरझत रबि तुरग पय । तिनतें अवंत मुगतानि कन जानि राज्य श्री अवति जय ॥४८॥ अडग डगति डगमगति प्रद्रि षरहरति अष्टकुल। चंड चक्षु चकचकति उघरि यल गति मुद्रित पल ॥ अचल चलति पलभलति झलकि झलझलति जलधि सर ॥ अढर ढरति ढरि परति धरनि धरहरति हयनि पुर ॥ अकबकति ईद हकबकति हर धकपकि धाता धीर नन । जयसिंघ सेन सजि चढ़त जब तब त्रिभुवन संकत सुमन ॥ ५० ॥ प्रबल पयान दिसान प्रति, नाद पूरि रज पूरि। बन गिरि तुहि संषुट्टि बन, भय पर जनपद भूरि ५१ आलम के दल उप्परहि, तत्ते किए तुषार ।। पाए तबही गढ़ उररि, श्री जयसिंघ कुंभार ॥५२॥ दिए मलीदा मेंगलनि, रातब हयनि रसाल ।. सलिल पाइ छंटेव मुह, बरत्यो समय बियाल ॥५३॥ बीरा मध्य कपूर बर, लहु एलची लवंग। नवल जायफल मागरम, रंजे सुभट सुरंग ॥ ५४ ॥ सिंधू गोरी बजत सुर, सूरति बढ़त सुलोह।। त्रिन ज्यों तन धन तिन तजे, मानिनि माया मोह ॥५॥ पलक जात रजनी परि, बियुरथो तम सुबिसाल ।