पृष्ठ:राजविलास.djvu/२६९

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राजविलास । आए निज गृह जीति अरि करि बहु कंदल काम ॥ उपि थान असुरेश को हृदय सुपूरिय हाम ॥ १०१ ॥ इहि परि रक्खे निज अवनि राजसिंघ महाराण । और हिंदु सेवे असुर षल पंडन षमान ॥ १०२ ॥ अथ कलस कवित्त । अजमेरह अग्गरो काध दिल्ली धर धुज्जै। रिनयंभह रलतले लच्छि लाहौर लुटिज्जै ॥ परासान षंधार यटा मुलतान थरक्कै । चंदेरी चलचलय भीति उज्जैनि भरक्कै॥ मंडवह धार धरनी मिलय डुलय देस गुजरात डर । औ दकै साहि औरंग अति राण सबल राजेश बर ॥ १०३ ॥ अचल युद्ध धर अकल अखल अज्जेज अभंगह ॥ अद्धत अनम अनंत आदि अवनीस सु अंगह ॥ काल- किन केदार पापि कज्जे प्रयाग पहु ॥ महि सु गग मदवान बिरुद इहिं भांति जास बहु ॥ जगतेश राण सुम जगत जस अच्छि देत बिलसंत अति ॥ कहि मान रोण राजेस यौं क्षत्रीपन रक्खंत षिति ॥१०॥ . . सज्जन सों सनमान दंड भरि यक्के दुज्जन ॥ जसकारक जाचकनि देत हय हच्छि दिन दिन ॥ न्याउ बेद बर नीति दूध को दूध जल जल ॥ अजा सिंघ थल इक्क सलिल ढुक्कत बिन संकल ॥ ध्रुबर प्रजास जौलौं धरा प्रगट बिरुद जिन हिंदुपति ॥ कहि मान राण राजेश यो क्षत्रीपन रक्खंत षिति ॥१०॥