पृष्ठ:राजविलास.djvu/३६

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राजबिलास। दोहा। जुरयौ जाइ चित्रंग नप, काल कोट कंकाल । कच्छ विभच्छ उधंस किय, भरिय रोसभूपाल ॥१०॥ परयौ पाइ कच्छाधिपति, दंड मानि रस ठानि । पुत्ति देइ हय गय प्रवर, जंग जोर वर जानि ॥१०॥ कवित्त । . . , कच्छ देश निज करिय जंग मोरी नप जित्तिय।। कूच कूच प्रति कूच पुहवि मेवारहि पत्तिय ॥ दुर्ग मुक्किनिय दूत कह्यौ पयसार सुकाह । कह्यौसो करि कैरव्य सवर सीसोदा सद्यह ॥ सुनि तप्पी ताम मेरी ससुर बुल्लय एह असोचि वच । गढ छडि पाउ रन मंडि गुरु सब रंतन बिधि एह सच ॥ १०३ ॥ निठुर ससुर बच सुनत तमकि मंगिय तोषा- रहि । सज्जि तुरिय पर वर सनाह शिर टोप सुधारहि ॥ बिहसि सकति कटि बंधि तीन बहु सर तरवारिय । चंड चित्त कर चाप हय सु इक्कल खह कारिय ॥ इक सहस दंति मदझर अनड लाख पेंच पायक लिय । चढि समुख चढ्यो चित्रकोट ते बापा बीर महाबलिय ॥ १०४ ॥ दोहा। शस्वायन भरि इक संहस, घुरत निशानन घोष । कायर थर हरि कपई, सूरन रन संतोष ॥ १०५ ॥