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पृष्ठ:राजविलास.djvu/५०

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राजबिलास । ४३ अभिनवा वसुमति' इंद, दुतिवंत जांनि दिनंद। कट्टन सु रिपु कुल कंद, श्री करण रांण सुनंद ॥७॥ अवदात सुजस अपार, पभनंत नापहि पार । यह धर्म नप अवतार, जगतेश जश जयकार ॥८॥ भुवि दीप सायर भांन, सुर शेल चंद समान । महकंत जस कहि मान, जगतेश रांन सुजान ॥५॥ दोहा। तिय वसुमति भालहिं तिलक, जिगमग जाति जराउ। निपुन सुमति नर निर्मयो, बहु विधि वरन बनाउ ६०. राज यांन महारान का,, सकल अवनि शृंगार। उदयापुर वर नगर इह, इंद्रलोक अनुहार ॥ ६१ ॥ प्रवर विकटपुर चहु परधि, पर्वत मयः प्राकार। चहुघां से पर चक्र को, सपनै नहि संचार ॥ ६२ ॥ को शीशा वलि सोह कर, प्रबल बुरज प्राकार । खंभ सु प्रबल कपाट युत, प्रौढ पौरि प्रतिहार ६३।। बसति जहां बहु विधि बरन, द्वादश कोस विशाल । थान थान कमठान थिर, तु षटही सुर साल ६४॥ चहु दिसि वाग सु बाटिका, जल सारनि कृषि जान। सायर सम सरवर सजल, नदी सुकुंड निवान ६॥ पल्ल पचित सम भूमि. बहु, प्रबल ऊंच प्रासाद । गोषजारि सेवन कलस, वदत गगन संवाद ॥ राज लोक मुरलोक सम, पात्र सु पात्र नवीन ।