पृष्ठ:राजविलास.djvu/५१

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राजबिलास। विविधि वृद वारांगना, कंचुक पुरुष प्रवीन । राज सभा सिंहासनहि, राजत श्री महरांन । प्रातपत्र चामर उभय, सेभ सुमेर समान ॥६६॥ बैठे निज निज बैठिकहि, सुभट राय साधार । प्रोहित मंत्री सर प्रवर, हुकुमदार हुजदार ॥ ६७ ॥ दलपति गनपति ढंडपति, गजपति हयपति सार । रथपति पयदलपति प्रगट, हैं जिन्ह अति अधिकार ॥ ६८ ॥ काशरु काठागार पति, शाष शाष भर भूप । षट भाषा नव षंड के, नर जहँ नव नव रूप ॥६॥ सशूषिक पार्श्वग गनक, लेषक लिषन प्रभूत । मर्दिक संधिक यष्टि धर, अनुग दुवारिग दूत॥७०॥ श्रीपति सेव सुसार्यपति, सौदागर संगर्व । मागधं चारन भट्ट कवि, गायन गन गंधर्व ॥७१॥ वादित्रिक मौष्टिक बिबिध, पायक वैद्य प्रसिद्ध । नट विट बटुक सुगल्ह नर, सभा संपूरि स्मृद्धि ॥७२॥ ___ इति राज सभा वर्णनम् ।। सकल सबर कमठान युत, सहसक षंभ सरूप । गजसाला रथसाल गुरु, प्रायुधशाल अनूप ॥७३॥ हयसाला बहु बरन हय, कोश सुकोठा गार। विबिधि बस्तु धन धान के, भरे सु सुक्षर भंडार ७४॥