पृष्ठ:राजविलास.djvu/५६

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राजबिलास। रूठ सु झाल । सबै वर संचय तालि तुलानि, जितें तित चित्र अनापम जांनि ॥ १०६ ॥ कितेइ सरापनि हट्ट सुभासि, दिपन दिनार रूपैयन राशि । सु थैलिय अग्ग धरै बदरांनि, सुछ- दत भेदत लेत पिछानि ॥ १०७ ॥ किते तहँ कुंदन रूप सुनार, सुगारत यंत्रनि- कदृत तार । गढ़े बहु भषन भंति बनाउ, जिगंमिग हीर जरंत जराउ ॥ १०८ ॥ किते बहु मौलिक बस्त्र बजाज, मंडे जर बाफ मुखमल साज ॥ मसद्यर नारीय कुंजर मिश्रु, सुभैसी कला तदु मास सहश्रु ॥ १० ॥ तनो सुख सूफ पटार दाइ, षीरोदक चेंनी पितांबर ल्हाइ । मनो सुख पांमरी साहिवी पाठ, हीरा गर सेंनिय हीर सगाढ़ ॥ ११० ॥ भरूच्छिय भैरव सारू सभार, सुसी मह मुंदी सु सिंद लिसार । झुनांटु करी श्री साय अटांन, सेला पंचतोरिय षासे सुजांन ॥ १११ ॥ ____मलमल साहि चौतार दुतार, उपै इकतार सु धौत अपार । सु सारिय चौरि से रंग रंगील, दिषां- वहि श्राद्य दलाल असील ॥ ११२ ॥ कितेइ कंठारिय मंडि,कठार, प्रधान कृयांण अनंत प्रकार । सु श्री फरू एलचि लांग सुपारि, सचे घन हिंगरू सम्म सुधारि ॥ ११३ ॥