पृष्ठ:राजविलास.djvu/५९

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राजबिलास। मंडै ऋतु पावस पावस जात, घनै सरदा सर- दादि सुहात । ऋतू ऋतुवंत रसाल विवेक, मंडे तर- कारिय भांति अनेक ॥ १२८ ॥ किते पटवानि के हट्ट प्रधान, गठे बहु भूषन पाट विज्ञान । किते करि दंत चढाइ परादि, उतारहिं नूटक चंग प्रसाद ॥ १२८ ॥ कितै तहं बौहरे आसुर वृंद, करै बहु वस्त्र व्यापार समुंद । कराहिय कंटक लोह कुठार, सचै गुजरातिय कग्गर तार ॥ १३० ॥ - लमें कोटवालि सु चौतरे उंच, बैठे कोटवाल करें पल पंच। निवेरहिं सत्य असत्य सु न्याउ, बहू चर वृदनि सेवत पाउ ॥ १३१ ॥ . कहूं सु जगातिय लेत जगाति, रहैं रखवारि किते दिन राति । गहैं कर पौंचिय इंच सु दान दियावहि श्री महारानु सु ांन ॥ १३२ ॥ सुजी भरभुजे कंसार ठंठार, धरें सिकली गर सस्त्र सुधारि । किते रंगरेज रण बहु रंग, सु चूनरि पाग कसुभिय रंग ॥ १३३ ॥ ... किते इक माचिस बाजि पलान, रचें शरवार सु पाइनि बान । जिती जग जाति तिते तिन कर्म, सबै सुष लोक बढ़ें धन धर्म ॥ १३४॥