पृष्ठ:राजविलास.djvu/९८

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राजविलास । कट्टन दरिद दुख · कलङ्क। मुख दुति जानि सकल मयङ्क ॥ अप्पय लछि चित्त उदार । सच्चा सूर कुल अँगार ॥ ६०॥ . कमनीय काय अप्प कुमार । अभिनव मदन को अवतार ॥ उपिति सहज पर उपगार । हरषत देत द्रव्य हजार ॥ ६१॥ अंकुश सरिस जो अरि इभ । गाहत आसुरी धर गर्भ॥ धुज्जत असुर बर तस धाक । हक्कत सीह बन धन हाक ॥ ६२ ॥ . ए अवतार रूप अनूप । भेटहि जास बड़ बड़ भप ॥राज कुंभार राजस रीति । उयपि जिनहि सकल अनीति ॥ ६३ ॥ ____झलकत मस्म नर वर झुण्ड । प्रकट कि तरनि तेज प्रचंड । महिमा मेरु सबर मृजाद । वसुमति को न मंडय बाद ॥ ६४ ॥ महि तल सकल मान महन्त । मानहि कुंभर अरि कुल अन्त ॥ सुरही विप्र करन सहाय । गीपति सरस जसु जस गाय ॥ ६५ ॥ गिनियहि मेरु गिरि वर गाढ़। उहि पिसुन नर असि डाढ़ ॥ घन ते अधिक दृढ़ घन घाउ । दिसि दिसि देत पर धर दाउ॥ ६६ ॥