२७ अक्टूबर को बादशाह ने तहत्वुख्खाँ सेनापति को मांडल आदि परगने ज़ब्त करने और हसनअली को राणा से लड़ने भेजा। हसनअली के पास ७००० सेना थी। १ दिसम्बर को वह स्वयं भी उदयपुर की ओर चल दिया। उसके साथ योरोपियनों का तोपख़ाना भी था―बंगाल से शाहज़ादा भुअज्ज़म भी अपनी सेना सहित आ गया था। देवारी की घाटी में वहाँ के रक्षकों से बादशाह का युद्ध हुआ जिसमें राठौर गोरासिंह मारे गये और रावत मानसिंह घायल हुए। घाटी पर बादशाह का अधिकार हो गया। यहाँ से बादशाह ने राणा के पीछे पहाड़ों में हसन- अली खाँ को बड़ी सेना के साथ भेजा और शाहजादा मुअज्ज़म को खानेजहाँ सादुल्लाखाँ और इक्का ताजखाँ के साथ उदयपुर भेजा। वहाँ सब जगह सुनसान था। इक्का ताजखाँ और सादुल्ला ने महलों के आगे बने प्रसिद्ध (जगदीशकमन्दिर को तोड़ डाला। २० मांचा तोड़ राजपूत तो वहाँ तैनात थे, वे एक-एक करके मारे गए। बादशाह ने भी उदयसागर पर के ३ मन्दिर ढहवाए। हसनअली ने राणा का पीछा करके उस पर हमला किया और बहुत सी रसद और सामान लूट कर २० ऊंटों पर लादकर बाद- शाह की सेवा में भेजा और १७२ मन्दिर ढहाए। बादशाह ने खुश होकर उसे बहादुर आलमशाही का ख़िताब दिया। बादशाह ने चित्तौड़ के आसपास ६३ मन्दिर गिरवाए और शाहज़ादा अकबर, हसनअलीखाँ, मुअज्ज़मखाँ, रजीउद्दीनखाँ को चित्तौड़ रक्षा का भार दे अजमेर लौट आया। बादशाह के लौटते ही राज़- पूतों ने शाही थाने लूटने शुरु कर दिए। जिससे मुग़ल सेना की व्यवस्था बिगड़ गई। और उनका आतंक उस पर छा गया। इसी बीच राणा ने बहुत सी शाही रसद लूट ली और शाही थाने बर्बाद कर दिए। फलतः पहला आक्रमण निष्फल रहा।
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