पृष्ठ:राजसिंह.djvu/११३

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राजसिंह [चौथा खाता। अब तुम शील संकोच छोड़ रुक्मणी बनो सखी! राजसिंह को पत्र लिखो। चारुमती-उनकी मैं पूजा करती हूँ। पर मैंने ऐसी क्या तपस्या की है कि उनकी चरणदासी बन सकूँगी। निर्मल-(हंसकर) चरणदासी बनने की बात पीछे सोची जायगी, अभी तो यही लिखो कि एक राजपूत बाला आपकी शरण है, उसके धर्म की रक्षा कर सको तो करो। चारुमती-ऐसी बेहयाई का काम मैं न कर सकेंगी। मैं उन्हें पत्र कैसे लिख सकती हूँ। निर्मल-विपत्ति में मर्यादा नहीं रहती, सखी ! मैं कहती हूँ सो करो-राजा को पत्र लिखो। आज ग्यारस है। ब्याह की तिथि पंचमी है। ६ दिन का अवसर है। चेष्टा करने पर इस अवसर में सन्देश पहुंच सकता है। चारुमती-पर यह सन्देश ले कौन जायगा ? निर्मल-राजपुरोहित अनन्तमिश्र को ठीक कर चुकी हूँ। वे बड़े धर्मात्मा और राजपरिवार के शुभचिन्तक हैं। चारुमति-वे यह कठिन काम कर सकेंगे ? निर्मल- -अवश्य करेंगे। चारुमती-अच्छा ! पत्र पाकर भी जो राणाजी ने मेरी रक्षा करना न स्वीकार किया ? मेरी रक्षा करना-अपना सर्वनाश करना है। कौन एक बालिका के लिए अपने 'राज्य पर विपत्ति लायगा।