पृष्ठ:राजसिंह.djvu/११४

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६६ दृश्य तीसरा अंक निर्मल-सखी, जिस वीर की तुम पूजा करती हो वह क्या इतना कायर है कि शरणागत को अभय न करे। वह शरणागत एक निरीह राजपूत कन्या हो (मुस्करा कर धीरे से) और मन ही मन उन्हें वर कर चुकी हो । चारुमती-(हँसकर) दुष्टता न कर । पर पत्र लिखू कैसे ? निर्मल-ठहर ! मैं अनन्तमिश्र को बुलाने किसी को भेजती हूँ और पत्र लिखने की सामग्री लाती हूँ। (जाती है) चारुमती-(रोती हुई) मैं वह विषैला फूल हूँ जिसे सूंघने से मनुष्य की मृत्यु होती है। न जाने यह अभागिनी कितने वीरों का काल-रूप लेकर जन्मी है। क्यों मैं वीरवर को जोखिम में डालूँ ? क्यों न 'आत्मघात कर प्राण दे दूं। (रोती है) (निर्मल पाती है) चारुमती-सखी, मेरा मरना ही अच्छा है। निर्मल-आवश्यकता होगी तो वह भी हो रहेगा सखी । वह तो हमारे बाएं हाथ का खेल है। पर तुम्हें तो बादशाह आलमगीर की नाक लात से तोड़नी है । अभी उसका उपाय हो। मैं भी जरा यह तमाशा देखू गी। लो पत्र लिखो। चारुमती-कैसे लिखू। निर्मल-तुम लिखो, मैं बोलती हूँ। चारुमती-नहीं तू ही लिय।