राजसिंह चौथा निर्मल-हंसकर) आज तो तुम्ही लिग्यो, फिर कभी होगा तो मैं लिख दूंगी। चारुमती-मर (कलम कागज लेकर) बोल । निर्मल-लिखो प्रियतम प्रा' चारुमती-(रूम कागज लेकर) मार ग्यायगी। तू । जा मैं नहीं लिखती। निर्मल-(हंसती हुई) तब फिर अपनी मर्जी से लिखो। चारुमती-लिखने का कुछ काम नहीं है। भाग्य में जो होगा, हो जायगा। निर्मल-अच्छा लिखो-महाराजाधिराज ! चारुमती-(लिखकर ) आगे बोल । निर्मल--आप राजपत कुल शिरोमणि हैं और मैं विपद्ग्रस्त राजपूत बाला। पत्रवाहक मेरे गुरु है। मेरे दुर्भाग्य से दिल्लीपति मुझ अभागिन को अपनी बेगम बनाना चाहता है, उसकी सेना मुझे लेने आने ही वाली है। यद्यपि अनेक राजपूत कन्याओं ने मुग़ल बादशाहों के पर्यङ्क की शोभा बढ़ाई है। चारुमती--(रुककर ) नहीं, यह ठीक नहीं। निर्मल-(कुछ सोचकर) तब यह लिस्रो-मैं प्राण दूंगी पर मुराला की दासी न बनूंगी । (सोचकर) इसका कारण अभि- मान नहीं-धर्म है। आप प्रतापी राजाधिराज एवं -
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