पृष्ठ:राजसिंह.djvu/११६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दृश्य तीसरा अंक १०१ समस्त राजपूतों के अधिपति और धीर वीर हैं सो मैं आपकी शरणागत हूँ। चारुमती-बस इतना ही काफी है। निर्मल-एक बात और-अब आप अपना धर्म निवाहिए । चारुमती-(लिखकर ) बस । निर्मल-बस अब दस्तखत कर दो । हाँ, क्या हानि है, बादशाह की नाक लात से तोड़ने की बात भी लिख दी जाय । यह भी राजपूतबाला की प्रतिज्ञा है-महाराणा को उसका भी निवाह करना होगा। चारुमती-(मुस्करा कर) देख गुरुजी आये हैं या नहीं। ऐसी बात भी क्या लिखी जाती है। दासी-गुरुजी आये हैं (एक दासी आती है) निर्मल-उन्हें यहाँ भेज दे। (चारुमती से) अच्छा, अब मार्ग का क्या प्रबन्ध किया जाय । गुरुजी वृद्ध हैं। परन्तु खैर । (गुरुजी आते हैं) अनन्तमिश्र-(आशीर्वाद देकर) मुझे किसलिये बुलाया है बेटी । निर्मल-निमन्त्रण, है महाराज, बहुत से मालटाल खाने को मिलेंगे, साथ में स्वर्ण दक्षिणा । गुरुजी-(हंसकर) अरी लक्ष्मी येटी, यहाँ का अन्न खाते-खाते बूढ़ा हो गया। अब इस ब्राह्मण को खाने-पीने का लोभ न दो। कहो क्या काम है ?