दूसरा दृश्य (स्थान । नगर के महल का तीसरा भाग। महल में ब्याह की धूमधाम हो रही है । सखियाँ चारुमती का श्रङ्गार कर रही हैं | डाढिने गीत गा रही हैं । समय-सन्ध्या । चकमती चुपचाप बसू बहाती हुई बैठी है । निर्मल जड़ाऊ जेवगे का थाल लेकर आती है।) निर्मल-जड़ाऊ गहने पहनो कुमारी, आज तुम्हारे सुहाग का दिन है। चारुमती-पहनादे सखी, सुहाग न सही सुहाग का स्वाँग ही सही। लाओ देखू तो दुलहिन कैसे सना करती हैं। खूब सजा दो, दुलहिन बना दो। (गेती है) निर्मल-(धीरे से) छीः सुहाग के समय रोती हो सखी! धीरज धरो। तुम्ही अधीर होगी तो फिर हम क्या करेंगी ? चारुमती-भरी कैसे धीरज धरूँ, अभी तक भी राणा नहीं आये। निर्मल-और न बादशाह की फौज का ही कहीं पता है, शाही सेना का पता लगाने कासिद दौड़े फिर रहे हैं। चारुमती-मरै वह मुत्रा ! उनकी तलाश के लिए भी किसी को भेजा है। निर्मल-काका विक्रमसिंह ने अपने घर लगा रखे हैं। इन्हें आशा है
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