पृष्ठ:राजसिंह.djvu/१६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चौथा अंक १४६ ( विक्रमसिंह साथियों सहित श्राता है ) विक्रमसिंह-(तलवार ऊँची करके)जय, महाराणा राजसिंह की जय। महाराज, यही राजपूत कुलाङ्गार रामसिंह है, जिसने बादशाह को राजकन्या ब्याहने को बुलाया है। रामसिंह-(क्रोध से ) तुम्हीं इस सब षड्यन्त्र की जड़ हो, तो लो। (तलवार का बार करता है) विक्रमसिंह-ले मूर्ख, करनी का फल चख । ( पैंतरा बदल कर बार करता है । रामसिह का सिर कट कर दूर जा पड़ता है) राजसिंह-(हाथ ऊँचा करके ) बस युद्ध बन्द करो। (सब हाथ रोक लेते हैं ) आपने सम्बन्धी को मार दिया। विक्रमसिंह-वह इसी योग्य था महाराज, अपनी करनी को पहुंचा। आइए अब आप, इस समय जैसा अवसर है उसी के अनुरूप मैं आपको कन्या दान दूं। ( दोनों का हाथ मिलाकर आशीर्वाद देता है, राजपरिवार की स्त्रियाँ आती हैं) चारुमती-(माता को देखकर लिपटकर ) माता इस कृतघ्न पुत्री को क्षमा करना। राजमाता-बेटी, तेरा सौभाग्य अचल रहे । ( राजसिह से ) महाराज, राजपूत कन्या का आपने उद्धार कर अपने योग्य ही कार्य किया है। हमसे कुछ भेट मलाई तो बन नहीं पड़ी तथापि यह प्रमचिन्ह ग्रहण करें। (बहुमूल्य मोतियो की माला गले में डालती है)