पृष्ठ:राजसिंह.djvu/१७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चौथा अंक दृश्य १५५ को वह मुह की खानी पड़ी कि जिसे वह चिरकाल तक याद रखेगा। राणा-क्या विजयी वीर रत्नसिंह पीछे आ रहा है। योद्धा-हॉ महाराज, विजयी वीर, राजपूत धर्म का पालन कर ऐसी आन-बान से आ रहा है जैसी आनबान से आज तक कोई योद्धा मेवाड़ में न आया होगा । राणा-तुम क्या कहना चाहते हो ? योद्धा-घणी खम्मा अन्नदाता । वह वीर आ रहा है, वह वीर शिरोमणि । तलवार का धनी। राणा-सरो, विजयी वीर का स्वागत किया जाय । किले पर, महल में, नगर में, सर्वत्र रोशनी होनी चाहिए, मैं डंका और धोंसा, छत्र और चँवर उसे परंपरा के लिये प्रदान करता हूँ। योद्धा-डंका और धोंसा बजने दीजिए। महाराज, और सर्वत्र रोशनी होने दीजिए। जिससे सब कोई उसे देखे, उसके उस महान् उत्सर्ग को उसके बलिदान को। राणा-ठाकुर | तुम क्या कह रहे हो ? योद्धा- (आँखों में आँसू भरके) अन्नदाता--सत्य ही कह रहा हूँ। राणा-तुम्हारी बातें संदिग्ध हैं। रावत रत्नसिंह जीवित है न ? योद्धा-महाराज, वे जीवन को जय कर चुके । राणा-(ठण्डी सॉस लेकर ) तो यों कहो बीरवर रत्नसिंह अब नहीं हैं।