पृष्ठ:राजसिंह.djvu/१७५

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राजसिंह [पाँचवाँ दूर से इस अन्धकार में आलोक बखेर रहे हैं। और इस आलोक बखेरने की वह कथा कितनी पुरानी, कितनी प्रभावशाली है। कितने कवियों के कवित्वमय हृदयों ने इसे देखा है। कितनी विरहिणी नारियों की आत्मा का व्याकुल भाव इन्होंने देखा है। यह मूक ज्योतिर्मण्डल जगत् मे एक सौन्दर्य का विस्तार करता है । इनसे रात कितनी सुन्दर बन गई है। परन्तु यही क्या इनका अस्तित्व है ! नही । अति दूर अपने ध्रुव पर ये सब महान् हैं। उसी महानता की प्रतीक्षा इनका यह झिलमिल प्रकाश है। (कुमार जयसिह आते हैं ।) जयसिंह-वाह, यह चुपचाप तुम्हारा रात्रि निरीक्षण हो रहा है कमलकुमारी-हाँ स्वामी, आज अभी से आप अवकाश पा गए ? जयसिंह-हाँ प्रिये ! इन प्राणों को तो तुमने अटूट नेह के तारों से बाँध रखा है, कहीं भी हों खिंचकर यहीं चले आते हैं। अब राणा जी के लौट आने पर मुझे अवकाश भी मिल गया है। पर तुम क्या सोच रही हो प्रिये ! कमलकुमारी-कुछ नहीं। कोई गा रहा था कि यह फिल- मिलाती रात विश्राम का सन्देश लाई है, मैं सोच रही थी.. • "जाने दो-यह कुछ नहीं। जयसिंह कहो प्रिये, क्या सोच रही थी ? --