पृष्ठ:राजसिंह.djvu/१७९

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१६४ राजसिंह [पाँचवाँ. जयसिंह-कुछ भी समझ में नहीं आता । सुन्दर यह रात, शीतल मन्द-सुगन्ध समीर-तुम्हारा यह स्निग्ध हृदय और मेरा यह प्यासा मन । मेरी समझ में तो यही जीवन है । चलो प्रिये, विश्राम भवन में चल कर इसे सार्थक करें। कमलकुमारी-चलो स्वामी, जैसी-आपकी आज्ञा । (दोनों जाते है पर्दा बदलता है)