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पृष्ठ:राजसिंह.djvu/२३५

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२२० राजसिंह दसवाँ अलीगौहर-हुजूर, डेरा तम्बू तो सब लुट गये । होते तो गाढ़ने की यहाँ जगह नहीं । बस यही होगा कि जो जहाँ है खड़ा रहे ! हुजूर, इस पत्थर की चट्टान पर आराम करें बादशाह-मगर घोड़ों और सिपाहियों की रसद का क्या होगा ? अलीगौहर-हुजूर, इस दर्रे में न एक बूंद पानी न तिनका न । घास । महज पत्थरों के छोटे बड़े ढोके हैं। सिपाही चाहें तो उन्हें पेट से बांध कर रात काट सकते हैं। (एक प्यादा कठिनाई से आता है) प्यादा-खुदाबन्द, दुश्मनों ने बेगमात, स्वजाना, तोपखाना और रसद लूट ली है। और आधी फौज जो दरे से बाहर रह गई थी काट फेंकी । अब दुश्मन मुस्तैदी से दर्रे का मुंह रोके बैठा है। वहाँ उसने हमसे ही छीना हुआ तोपखाना लगा रखा है। बादशाह-(माथा पीट कर ) या अल्लाह, आज तूने आलमगीर को यह दिन दिखाया। आज जीता बचा तो समदूंगा। अलीगौहर -जहाँपनाह, यहाँ से जीते निकलने की कोई तरकीब नजर नहीं आ रही है। बादशाह-( गुस्से से होंठ चबा कर ) जैसी खुदा की मर्जी, फिलहाल जैसे मुमकिन हो यह रात काटी जायगी। जो इन्तजाम मुमकिन है करो। मैं जरा नमाज पढ़"गा। (चो से उतर कर नमाज पढ़ता है)