तीसरा दृश्य (स्थान-सनू वर की हवेली । कचहरी का बाहरी हिस्सा । सलूवरा सरदार रावत रघुनाथसिंह और उनके पुत्र रत्नसिंह बातें कर रहे हैं। समय-रात्रि) रावत रघुनाथसिंह-तुमने सुना, राणा ने सलू वर का पट्टा चौहान केसरसिंह पारसोली वाले को लिख दिया है। रत्नसिंह-सुना है पिता जी ! हमें ठिकाना छोड़ना पड़ेगा। रावत रघुनाथसिंह-मैं विद्रोह करूँगा। रत्नसिंह-नहीं पिता जी, हम विद्रोह नहीं कर सकते। रावत रघुनाथसिंह-किस लिये नहीं कर सकते ? क्या प्राण रहते हम अन्याय सहन करेंगे ? क्या हमारे शरीर में वाप्पा रावल का रक्त नहीं है, क्या हमारी तलवार मोथरी हो गई है ! हमारी कलाई में क्या उसे पकड़ने की शक्ति नहीं रही। रत्नसिंह-यह सब कुछ अभी है परन्तु शत्रु के लिये। स्वामी के लिए नहीं। ठिकाना स्वामी ने दिया है, वह ले भी सकता है। रावत रघुनाथसिंह-स्वामी ने क्या भीख में दिया है । इतिहास में क्या आग के अक्षरों में सत्यव्रती चूड़ाजी के त्गग की कथा नहीं लिखी है। यदि हमारे पूर्वज चूडाजी इच्छा से गद्दी का त्याग न करते तो आज राणा के
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