गजसिंह राणा- यह राजविद्रोह है । मैं उन्हें इसका दण्ड दूंगा। रत्नसिंह-यह राजविद्रोह नहीं-आत्म सम्मान है दर्वार ! दण्ड देना न देना आपकी मर्जी है ? राणा-मेरा सार बिना मेरी आज्ञा कैसे जा सकता है। रत्नसिंह-जब श्रीमानों ने जागीर जब्त करली तब वे सर्दार कहाँ रहे ? जहाँ आजीविका होगी वहीं वे रहेंगे। राणा-रघुनाथसिंह अजीविका के लिये देश से बाहर गये हैं। रत्नसिंह-हॉ दर्बार । राणा-और तुम ? तुम क्या करोगे ? रत्नसिंह-मैं, महाराज । यही मेवाड़ में एक मुट्ठी अन्न प्राप्त करने की चेष्टा करूंगा। राणा-और तुम्हारी यह तलवार ! रत्नसिंह-इसकी जब आवश्यकता होगी। तब यह अपना जौहर दिखायेगी। रानी-सुना महाराज, अपने सेवकों के विचार । राणा-सुना ! (भागे बढ़कर रत्नसिंह को छाती से लगाकर) वीरवर तू धन्य है। सलूवर ठिकाना तुम्हारा है। मैं रावत रघुनाथसिंह को लाने को दूत भेजूंगा। रत्नसिंह-(राणा के चरण छूकर) दार ! यह तलवार, यह प्राण, यह शरीर सर्व स्वदेश पर न्यौछावर है। राणा-रानी-धन्य वीर, धन्य रत्नसिंह! (पर्दा गिरता है)
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