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पृष्ठ:राजसिंह.djvu/४२

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दृश्य सातवाँ (स्थान-दिल्ली। लाल किले का भीतरी भाग। इबादतगाह का कमरा । बादशाह अकेला घूम रहा है। समय-प्रात:) पादशाह-(स्वगत) आज इस खोफनाक वक्त को ६ साल गुजर गये। जब समूगढ़ के मैदान में दारा की मौज के मैंने धुएँ उड़ा दिये थे। बदनसीब दारा, अपने सामने किसी को न लगाता था, आखिर कुत्ते की मौत मारा गया। आज भी वे खौफनाक आँखें नहीं भूलती-जब उसका सिर काटकर मेरे सामने पेश किया गया था। पहिले मुझे यकीन ही न हुआ कि यह दारा का सिर है । मगर फिर मैंने पहचाना- वह दारा था. वही, जो "ओफ ! उन बातों को याद करना कूफी है । इसके बाद, मुराद-बेवकूफ शराबी और अपनी तलवार पर इतराने वाला, गोया वह शाहजादा नहीं सिपाही था, आज अपनी करनी को पहुँचा। और इसके बाद तमाम कॉटे चुन चुन कर कुचल डाले गये। यह सारा लम्बा भी एक खौफनाक सपने की तरह जद्दोजहद में बीत गया। अब मैं तख्ते ताऊस पर बैठकर कुमारी कन्या से हिमालय की चोटियों तक और काबुल से समन्दर की लहरों तक हुकूमत करता बचपन में.. ।