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पृष्ठ:राजसिंह.djvu/४३

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राजसिंह [सातवाँ हूँ। आज मैं दुनिया का सब से बड़ा बादशाह हूँ मेरी ताकत का मुकाविला कौन कर सकता है। फिर अब इस फ़क़ीरी बाने की क्या जरूरत है ? यह ढोंग तो अब ढोया नहीं जाता। मैं बादशाह आलमगीर हूँ। बादशाहत एक चीज़ है और फकीरी दूसरी। मगर अभी दो काँटे मेरी आँखों में खटक रहे हैं। एक ये मुल्ला काजी और दूसरे खू ख्वार राजपूत । मुझे दोनों से नफरत है । ये मुल्ला। अक्ल के दुश्मन, मुक्खड़ और दुनिया से अंधे होते हैं मगर रियाया के दिलों पर इनकी हुकूमत है। इन्हें अपनाना मस्लहत है। मैं चाहता हूँ कि वे लोग समझे कि मैं पैग़म्बर हूँ। मगर ये राजपूत ? ये कुछ और ही तराश के जानवर हैं। कम्बख्तों के दिल में खौफ की तो जगह ही नहीं है। इनके लिए मरना और मारना महज खेल है। (कुछ सोच कर ) पहरे पर कौन है ? ( एक खोजा आता है) बादशाह-वजीर असदुल्ला को अभी हाजिर कर। खोजा-(कोनिस करके) जो हुक्म खुदाबन्द । (जाता है) बादशाह-( दोनों हाथों से मुट्ठी मखता हुआ ) यह तो सच है कि आला हजरत ने और जन्नत नशीन बादशाह जहाँगीर ने हिन्दुओं से मिलकर राजपूतों की मदद से हिन्दु- स्तान पर हूकूमत की थी मगर माज वक्त बदल गया