पृष्ठ:राजसिंह.djvu/७६

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छठा दृश्य (स्थान-रूपनगर के राजा का दीवानखाना । राजा और मन्त्री बातें कर रहे हैं । समय-अपरान्ह ।) मन्त्री महाराज | आज ही दिल्ली को जवाब देने का आखिरी दिन है। आज शाही क़ासिद को बिदा करना होगा। राजा-मैं इतना अधम नहीं । जीते जी अपनी कन्या विधर्मी को नहीं दूंगा। मेरे तन में क्षत्रिय रक्त है । मेरे पूर्वजाँ ने अपनी आन पर प्राण दिये हैं। बादशाह को लिख दो। हमें उनका प्रस्ताव स्वीकृत नहीं है। दीवान-महाराज ! कल्पना कीजिए, कि अभी तो बादशाह ने विनय शिष्टाचार से राजपुत्री की याचना की है, यदि वह जोर जुल्म पर उतारू हो कर बल से कुमारी का डोला ले जाय तो कौन हमारी रक्षा करेगा ? राजपूताने के सभी राजपूतों की बेटियाँ शाही रंग महल की शोभा विस्तार कर रही हैं। एक दो जो बच रहे हैं उनकी गिन्ती उँगली पर गिनने योग्य है। वे तभी तक बच सकते हैं जब तक शाही क्रूर दृष्टि उनकी ओर न हो । फिर जो लोग शाही रिश्तेदार हो चुके-वे अपने मुंह की कालिख पोंछने को चाहते हैं कि दूसरे राजपूत क्यों अछूते बच रहें । फिर राजपूतों में संगठन नहीं,