पृष्ठ:राजसिंह.djvu/७८

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दूसरा अंक दृश्य राजा-यह असम्भव है, दीवान जी, जिस शत्रु ने मेरे राज्य पर आक्रमण करके मेरा गढ़ छीन लिया है उसे तो मैं इसी तलवार का तीखा पानी पिलाने का इच्छुक हूँ। उसे मैं बेटी दूगा? दीवान-महाराज, बड़े स्वार्थों की रक्षा के विचार से छोटे मोटे स्वार्थ त्यागने पड़ते हैं । यह अवसर क्रोध करने का नहीं है। राजनीति कहती है कि यदि हम राणा का यह अपराध क्षमा कर उसके पास राजकुमारी के सम्बन्ध का सन्देश भेजेंगे, तो सब ओर कल्याण ही कल्याण है। पहिली बात तो यह होगी कि राजकुमारी को सर्वश्रेष्ट घर-वर मिलेगा और उसकी चिन्ता के भार से हम मुक्त होंगे। दूसरे राजसिंह जैसे शत्रु से मित्रता होगी। तीसरे राजपूतों के संगठन की एक जड़ जमेगी। आगे महाराज की जैसी मर्जी । राजा-मैं राजसिंह को क्षमा नहीं कर सकता । पहले माँडलगढ़ लूंगा, पीछे दूसरी बात। दीवान-महाराज ! विपत्ति के बादल हमारे छोटे से राज्य पर मंडरा रहे हैं। इनसे कैसे उद्धार होगा सेबक की प्रार्थना है कि फिर से इस विषय पर विचार कर लिया जाय। राजा-अब और कुछ विचारने का काम नहीं है। क्षत्रिय का जीवन एक पानी का बुलबुला है। रहा रहा-न रहा न