पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/११६

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1 मील की दूरी थी और यह दूरी बने दुर्गों की श्रेणी के द्वारा मालूम न पड़ती थी। उसका निर्माण वैज्ञानिक रूप से किया गया था। उसमे बने हुए राज मार्ग अनेक प्रकार से सुविधापूर्ण थे। कहा जाता है कि विद्याधर नामक एक बंगाली ने इस राजधानी का नक्शा तैयार किया था। सवाई जयसिंह ने ज्योतिप विज्ञान और इतिहास में बड़ी योग्यता प्राप्त की थी। विद्याधर बंगाली उसके कार्य मे प्रधान सहयोगी था। यों तो अनेक राजपूत राजाओं ने ज्योतिष ज्ञान प्राप्त किया था परन्तु सवाई जयसिह ने विशेष रूप से ज्योतिष में अधिकार प्राप्त किया। अपनी शिक्षा और अध्ययन के द्वारा वह एक अच्छा वैज्ञानिक बन गया। ज्योतिष में उसकी बढ़ी हुई योग्यता को देखकर दिल्ली के बादशाह मोहम्मदशाह ने पंचांग के संशोधन का कार्य उसको सौंपा था। राजा सवाई जयसिंह को चन्द्रमा, सूर्य और दूसरे ग्रहों तथा नक्षत्रों के सम्बन्ध में बहुत अच्छा ज्ञान था। इसके लिए उसने अनुभव और ज्ञान से अनेक प्रकार के यंत्रों की रचना की थी और दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, वाराणसी और मथुरा आदि प्रसिद्ध नगरों में विशाल मंदिर बनाकर उसने अपने समस्त यंत्रों को वहाँ पर रखा था। इस प्रकार के कार्य में सवाई जयसिंह को अत्यधिक रुचि थी और उस रुचि के कारण उसे प्रशंसनीय सफलता मिली। भारत के अनेक प्रसिद्ध नगरों में उसके द्वारा जो मान-मन्दिर बने थे और उनमें उसके द्वारा जो यंत्र रखे गये, उनकी प्रशंसा उस विषय में अनेक विदेशी विद्वानों ने की है।* जयसिंह ने अपने यंत्रों का आविष्कार करने के पहले समरकन्द के राज-ज्योतिपी उलगवेग के बनाये हुये यन्त्रों का प्रयोग किया था। परन्तु उससे उनको संतोप न मिला। इसके बाद सात वर्ष तक अनेक प्रकार की परीक्षायें और अनुभव करके उसने अपने यन्त्रों की रचना का कार्य आरम्भ किया। इन्हीं दिनों में मैन्युअल नामक एक मिशनरी पादरी पुर्तगाल से भारत में आया था। उससे मिलकर सवाई जयसिंह ने पुर्तगाल-राज्य की ज्योतिप के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की और इस कार्य के लिए उसने अपने कई योग्य सहयोगियो को उस पादरी के साथ पुर्तगाल भेजा था। वहाँ के राजा ने जेवियर डिसिल्वा नामक एक व्यक्ति को भारत मे भेजा। उसने जयपुर में आकर पुर्तगाल के डि ला हायर के बनाये हुये यन्त्र सवाई जयसिंह को दिये थे। उन यन्त्रों की परीक्षा करके सवाई जयसिंह ने चन्द्रमा के स्थान के सम्बन्ध में आधी डिग्री की भूल सावित की और इस बात को स्वीकार किया कि दूसरे ग्रहों के सम्बन्ध में इन यन्त्रों में इस प्रकार की भूल नहीं है। सवाई जयसिंह ने एक तुर्की ज्योतिपी के बनाये हुये यन्त्रो के सम्बन्ध मे भी इसी प्रकार का निर्णय दिया था। ज्योतिप-विज्ञान में उन्नति करने और मान मन्दिर बनवाने के सिवा सवाई जयसिंह ने यात्रियो की सुविधा के लिए अपने राज्य में बहुत-सा धन व्यय करके अनेक धर्मशालायें बनवायी हैं। इसमे सन्देह नहीं कि उसके हृदय मे सार्वजनिक हितो के लिए उदारता थी। उसके अनेक कार्यो के द्वारा उसके इस उज्जवल हृदय का प्रमाण मिलता है। यह बात सही है कि राजस्थान के अनेक राजपूत वीरो मे सवाई जयसिंह की अपेक्षा अधिक साहस और शौर्य था। लेकिन अन्य गुणों के सम्बन्ध में जो ख्याति सवाई जयसिंह को मिली, किसी दूसरे को नहीं मिली। उसके शासनकाल में सम्पूर्ण देश मे अविराम युद्ध हो रहे थे और मुगल बादशाह के काशी के मान मदिर में जाने का जिनको अवसर मिला है, उन्होने वहाँ पर इस प्रकार के अनेक या और उसकी दृसरी सामग्री देखी होगी। यह बात अवश्य है कि इतना समय बीत जाने के बाद उसके यत्रो आर उपकरणो की अवस्था पहले की सी न रह गयी हो। उन यत्रो को देखकर अनेक पश्चिमी ज्योतिपियो ने सवाई जयसिंह की प्रशसा की है। । 108