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विश्वामित्र को यह सब देखकर अपार दुख हुआ। उसने भली भांति इस बात को समझ लिया कि क्षत्रियों के शासन के बिना इस अराजकता का अंत नहीं हो सकता। इसलिए उस महर्पि ने क्षत्रियों के शासन को फिर से लाने के लिए योजना तैयार की। आवू शिखर के जिस स्थान पर ऋपि ओर मुनि रहा करते थे और अपने तप से उन्होंने जिस स्थान को पवित्र किया था, वहाँ पर जाकर क्षत्रियों के शासन की सृष्टि के लिए विश्वामित्र ने यज्ञ करने का अनुष्ठान किया। उसकी सहायता के लिए वहाँ के समस्त ऋपि और मुनि तैयार हो गये। वे सभी भगवान के पास गये और उन्होंने बढ़ी हुई अराजकता का वर्णन करके उसको दूर करने के लिये भगवान से प्रार्थना की। ऋपियों और मुनियों की प्रार्थना को सुनकर भगवान ने क्षत्रियों की सृष्टि करने का आदेश दिया। ऋपि और मुनि उस आदेश को सुनकर इन्द्र ब्रह्मा, रूद्र और विष्णु के साथ आबू शिखर पर आये। यज्ञ का कार्य आरम्भ हो गया। उसके समस्त कार्यों को पूरा करने के लिये आये हुये देवताओं ने सलाह दी। इन्द्र ने हरी दूब से एक पुतली बनाकर उसे यज्ञ के जलते हुए कुण्ड में डाल दिया। इसी समय संजीव मंत्र का पाठ हुआ। उस पाठ के समाप्त होते-होते दाहिने हाथ मे गदा लिये हुए मार की आवाज करता हुआ वीर पुरुप बाहर निकला। उसके मुख से निकलने वाले शब्दों के आधार पर उसका नाम प्रमार रखा गया। देवताओं ने उसको शासन करने के लिये आबू, धार और उज्जैन नामक नगर दिये। ___इसके पश्चात् पद्मासन वैठकर ब्रह्मा ने दूव की एक पुतली बनाकर अग्निकुण्ड में डाली। यज्ञकुण्ड में उस पुतली के गिरते ही एक वीर पुरुप का आविर्भाव हुआ। उसके एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में वेद ग्रंथ था। उसका नाम चालुक अथवा सोलंकी रखा गया। उसको राज्य करने के लिए अनहल पट्टन दिया। तीसरे देवता महादेव ने दूब लेकर एक पुतली वनायी और गंगा जल में स्नान कराकर | अग्निकुण्ड में डाल दी। उसके साथ ही मंत्रों का पाठ हुआ। मंत्रों के उच्चारण होते ही धनुपवाण हाथ में लिये हुए कृष्ण वर्ण मूर्ति का एक वीर पुरुप अग्निकुण्ड से निकला। असुरों के साथ युद्ध करने के लिये उसको प्रस्तुत न देखकर उसका नाम परिहार रखा गया और द्वार की रक्षा का उत्तरदायित्व उसको दिया गया। इसके बाद उसको मरुस्थली के नौ स्थान दिये गये। चौथे देवता विष्णु ने दूब को अपने हाथों में लेकर एक पुतली बनायी ओर मंत्रों के उच्चारण के साथ-साथ उस पुतली को अग्नि-कुण्ड मे डाल दिया। उसके बाद ही अपने चारों हाथो में अस्त्र लिये एक वीर पुरुप निकला। चार हाथ होने के कारण उसका नाम चतुर्भुज चौहान रखा गया। उसको मैहकावती नगर का शासन दिया गया। इस समय वह स्थान गढा मंडला के नाम से मशहूर है, उस समय वह मैहकावती के नाम से प्रसिद्ध था। यज के कार्य को असुर ओर दानव वडी गम्भीरता से देख रहे थे और उनके दो प्रधान अग्नि-कुण्ड के बहुत समीप खड़े थे। यज्ञ का कार्य समाप्त होने पर चारो शूरवीर क्षत्रिय असुरो और दानवों के साथ युद्ध करने के लिये भेजे गये। उन चारों क्षत्रियो ने असुरों के साथ भीपण युद्ध आरम्भ किया। क्षत्रियो के द्वारा जो असुर और दानव कट-कट कर जमीन पर गिरते थे, उनके शरीर से निकलने वाले रक्त से नवीन असुर और दानव पैदा होकर युद्ध करने लगते थे, इससे उस युद्ध के कभी अन्त होने का अनुमान नहीं लगाया जा सकता था। इस दशा में चारो क्षत्रियो की कुल देवियो ने युद्ध-क्षेत्र में प्रवेश किया और घायल होकर गिरने वाले असुरों एवम् दानवों के रक्त को पीना आरम्भ किया। इसका परिणाम यह हुआ कि उनके रक्त 196