पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/२४८

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शाहआलम अपनी सेना के साथ लाहौर से और अपने लड़के वेदार वख्त के साथ सेना लिए हुए आजम दक्षिण से रवाना हुआ। धौलपुर के निकट जाजौ नामक स्थान पर दोनों सेनाओ की भेंट हुई और युद्ध आरम्भ हो गया। थोड़े ही समय के बाद इस युद्ध ने भयानक रूप धारण किया। मुगल सिंहासन पर बैठने का अधिकार प्राप्त करने के लिए शाह आलम और आजम में यह युद्ध हुआ लेकिन राजस्थान के सभी राजपूत नरेश अपनी-अपनी सेनाये लेकर इस युद्ध मे आये और उनमें से कुछ लोगो ने शाह आलम का और शेप लोगों ने आजम का साथ दिया। इस प्रकार राजस्थान के सभी राजपूत राजा इस युद्ध मे एकदूसरे का सर्वनाश करने के लिए तैयार हो गये और शाह आलम तथा आजम की सहायता करने के स्थान पर राजपूत राजा इस युद्ध में लड़कर स्वयं अपना ही विनाश करने लगे। दतिया और कोटा राज्य के दोनो नरेश बहुत दिनों तक शाहजादा आजम के अधीन दक्षिण के युद्ध में रह चुके थे। आजम उन दोनों का बहुत विश्वास भी करता था। इसलिए उन दोनो राजाओं ने बादशाह औरंगजेब के निर्णय की परवाह न करके छोटे शाहजादे को सिंहासन पर बिठाने के लिए पूरी कोशिश की। बूंदी और दतिया के राजाओं की आपस में मित्रता थी और दोनो ने दक्षिण के युद्ध मे कीर्ति प्राप्त की थी परन्तु इस समय दतिया का राजा अपने मित्र अनिरूद्ध सिंह के लड़के बुधसिंह के विरुद्ध युद्ध कर रहा था और कोटा का राजा रामसिंह आजम का पक्ष लेकर शाहआलम के विरुद्ध युद्ध कर रहा था। बूंदी के राजा को बादशाह के दरबार में सदा सम्मान पूर्ण स्थान मिला था और इसीलिए उसके साथ कोटा का राजा ईर्ष्या करता था। वह चाहता था कि हाडा राजा को मुगल दरवार में जो सम्मान पूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है, वह मुझे मिले। इसीलिए उसने इस युद्ध मे आजम का साथ दिया था। राव बुधसिंह शाह आलम के पक्ष मे था। सही बात यह है कि धोलपुर के इस युद्ध में जो राजा और नरेश दोनों पक्षों की सहायता में युद्ध कर रहे थे, उन सबके सामने एक न एक स्वार्थ था। प्रत्येक पक्ष अपने सहायकों के सम्मान को बढ़ाने का विश्वास दे रहा था। युद्ध आरम्भ होने के पहले कोटा के राजा राम सिंह ने बुधसिंह के पास एक पत्र भेजा था और उसके द्वारा उसने बुधसिंह को शाहआलम के पक्ष से आजम की ओर लाने की चेष्टा की थी। उस पत्र को पाकर राव बुधसिंह ने क्रोध में आकर उसको उत्तर देते हुए लिखा :"मेरे पूर्वजो ने बादशाह का समर्थन करके जिस युद्ध-क्षेत्र में अपने जीवन का अन्त किया था, उस युद्ध-क्षेत्र में बादशाह के विरुद्ध युद्ध करके मैं अपने वंश को कलंकित नहीं कर सकता।" युद्ध आरम्भ होने पर राव बुधसिंह ने बादशाह आलम के द्वारा प्रधान सेनापति का पद प्राप्त किया और युद्ध में उसने अपने असीम साहस और शौर्य का आश्चर्यजनक परिचय दिया। इसके परिणाम स्वरूप बहादुरशाह आलम की युद्ध में विजय हुई और वह शत्रुपक्ष को परास्त करके मुगल सिंहासन पर बैठा। कोटा का हाड़ा राजा रामसिंह और दतिया का बुन्देला राजा दलीप दोनो ही आजम की तरफ से लड़ते हुए युद्ध में मारे गये। उस युद्ध में आजम और वेदार बख्त का भी अन्त हो गया। जाजो के युद्ध में बुधसिंह का शौर्य देखकर बादशाह बहादुरशाह आलम ने उसको राव राजा की उपाधि दी और उसके साथ मैत्री कायम की। यह मित्रता बादशाह के जीवन के 240