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मराठा अधिकारियों और मित्रों को समझाया कि हमारे राजपूत राजाओ ने मित्रता को स्वीकार करने के साथ उन जिलों का अधिकार दे देना मन्जूर कर लिया है, जिन पर बहुत दिनो से होलकर का अधिकार चल रहा था। हमारे साथ अग्रेजो ने जो उदारता का व्यवहार किया, उसे हमको भूलना नहीं चाहिये। जालिम सिह का व्यवहार और सद्भाव ऊँचा था। हमने उस पर कभी सन्देह नहीं किया। उसमे उदारता की भावना बहुत श्रेष्ठ है। इसके लिये न जाने कितने प्रमाण उसके जीवन में पाये जाते हैं। जिस समय उसको कोटा राज्य के शासन की सनद दी गयी, तो उसने सम्मानपूर्वक उसको स्वीकार करने से इन्कार किया और कहा कि इस सनद का अधिकारी महाराव है, मे नहीं हूँ। मैने जालिम सिह के जीवन में एक-दो नही, बहुत सी ऐसी बातें देखी हैं, जो प्रत्येक अवस्था में प्रशंसनीय हैं और मुझे उनकी प्रशसा करनी चाहिये। सन् 1819 ईसवी के नवम्बर महीने में उम्मेद सिह की मृत्यु हो गयी। उस समय कोटा के सिंहासन पर बेठने का प्रश्न पैदा हुआ। उस अवसर पर जालिम सिंह ने जो कुछ किया, उसमे अंग्रेज सरकार का कोई परामर्श न था। सन् 1817 के 26 दिसम्बर को दिल्ली मे सन्धि हुई थी और उस सन्धि मे कोटा राज्य का प्रतिनिधि अधिकारी की हैसियत से उपस्थित था। महाराव उम्मेद सिह ने उस सन्धि को स्वीकार किया था। दस्तावेज के कागज जनवरी के पहले दोनों पक्षो के अधिकारियों को दे दिये गये थे। इस मधि पर दोनो पक्षो की तरफ से मोहरे लगा दी गयी थीं। लेकिन उस संधि में जालिम सिह के अधिकार का कोई निर्णय नहीं हुआ था। इसलिये उस विपय का कोई उल्लेख सधि की शर्तो मे नहीं किया गया था और जहाँ पर जालिम सिंह का नाम आया था, वहाँ पर उसके नाम के साथ मंत्री शब्द का प्रयोग किया गया था। अंग्रेज प्रतिनिधियो को उस सन्धि मे एक त्रुटि मालूम हुई। इस भूल का कारण किसी प्रकार की असावधानी नहीं थी। बल्कि उसका कारण जालिम सिंह स्वय था और वह संधि में अपने लिये इस प्रकार की कोई शर्त आवश्यक नही समझता था। बालक उम्मेदसिंह के सिंहासन पर बैठने से बाद वे अब तक उसने कोटा राज्य में पचास वर्प शासन किया था और इस दीर्घ काल में उसकी सफलता और प्रभुता ने उसको कोटा के शासक के रूप में प्रसिद्ध कर दिया। अगर उसने सन्धि के समय अपने लिये इस प्रकार शर्त की अभिलापा की होती तो उसके स्वाभिमान को आघात पहुँचा होता और अपनी श्रेष्ट मर्यादा को खोकर विदेशी प्रभुत्व मे उसने मन्त्री के पद का अधिकार प्राप्त किया होता। उस समय इसका कोई भी कारण हो, लेकिन दोनो पक्ष के अधिकारियों ने जालिम सिंह के सम्बन्ध की शर्त को सन्धि मे उतना ही आवश्यक और महत्वपूर्ण समझा होता, जितना कि उसकी दूसरी शर्त को और उसके द्वारा महाराव उम्मेद सिंह की मृत्यु के बाद जालिम सिह के अधिकारो को भविष्य मे विरोधियो के निकट सुरक्षित रखा गया होता। यह लिखा जा चुका है कि सधि दिल्ली में सन् 1817 ईसवी के दिसम्बर महीने मे हो चुकी थी और सन् 1818 के जनवरी महीने मे उनकी तहरीरो को दोनो पक्षो के अधिकारियो ने पा लिया था। उसी वर्प के मार्च मे सधि की दो नयी शर्तो दोनो पक्षो के प्रतिनिधियो ने दिल्ली मे मन्जूर की, जिससे इस बात को स्वीकार कर लिया गया कि शासन का भार सदा के 306