पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/३२६

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उसके साथ के हाडा राजपूत उसे छोडकर और नदी के पार जाकर लगभग आधा मील की दूरी तक चले गये थे। इस समय जालिम सिह की सहायक सेना ने आगे बढकर महाराव की सेना को तितर-बितर कर दिया। अंग्रेजी सेना ने तेजी के साथ नदी को पार किया और जैसे ही उसने हाडा राजपूतों पर आक्रमण करके खत्म कर देने की कोशिश की, वैसे ही वे दक्षिण की तरफ से भाग गये। इसी समय दो दल सैनिको के महाराव पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ। उस समय मालूम हुआ कि जो लोग महाराव की तरफ से युद्ध क्षेत्र छोड़ कर भागे थे, वे पिण्डारी लोग थे, राजपूत नही थे। राजपूत अब भी युद्ध में दीवार बनकर खड़े थे। उनके साथ युद्ध करते हुए हमारी सेना पीछे हट गयी, उसी समय हमारे दो शूरवीर युवक मारे गये। उनमे एक क्लर्क और दूसरा रीडर था। दोनो चौथी रेजीमेण्ट में लेफ्टीनेन्ट थे। उनका प्रसिद्ध कमाण्डर किसी प्रकार बच सका। इसके कुछ ही देर बाद एक दूसरी अंग्रेजी सेना युद्ध करते हुए आगे बढ़ी, उस समय महाराव की सेना पीछे हट कर एक विशाल बाजरे के खेत मे पहुँच गयी। अंग्रेजी सेना ने उसका पीछा किया और उसने बाजरे के खेत में पहुंचने पर पृथ्वीसिंह को घायल पड़ा हुआ देखा। उसी समय उसे उठाकर अग्रेज सेना ने अपने सैनिको के द्वारा शिविर में भेज दिया। अग्रेजी शिविर म पहुँच जाने पर उसकी वडी सावधानी के साथ सुश्रुपा और चिकित्सा की गयी। परन्तु वह वच न सका और दूसरे दिन उसकी मृत्यु हो गयी। उस समय उसके साथ कुछ चीजे पायी गयीं। उनमें से एक अंग्रेज सैनिक ने उसकी तलवार और अंगूठी ले ली और मोतियों की माला, कटार एवम् अन्य मूल्यवान आभूपण उसने मुझे दे दिये। मैंने वे चीजे पृथ्वीसिंह के लडके को सम्हाल कर रखने के लिये दे दी, जो कोटा के सूने सिंहासन का पूर्ण रूप से उत्तराधिकारी था। अग्रेजी सेना के किसी सेनिक ने आक्रमण करके पृथ्वीसिंह को नहीं मारा था, बल्कि भालों की मार के समय वह अनायास ही घायल हो गया था। अंग्रेजी सेना ने महाराव की सेना के साथ युद्ध किया था, लेकिन उनके एक भी सैनिक ने उसके पास पहुँचने की चेष्टा नहीं की थी। इसलिये मालूम होता है कि महाराव के किसी शत्रु ने विश्वासघात करके पृथ्वीसिंह को घायल किया था। क्योंकि पृथ्वीसिंह के शरीर पर सामने कोई भी चोट न थी। उसकी पीठ पर भाले की लगी हुई चोटे इस बात का स्पष्ट प्रमाण देती थीं कि उस पर उसी के पक्ष के किसी आदमी का आक्रमण था और उसने किसी दूरवर्ती अपने स्वार्थो की भावना से प्रेरित होकर इस प्रकार विश्वासघात किया था। महाराव की सेना बाजरे के विशाल खेत मे जाकर इधर-उधर हो गयी और उसने अपनी रक्षा की। उस खेत के आगे इतना घना जंगल था कि वहाँ पहुँच जाने पर उस सेना के ऊँचे हाथी भी दिखायी न पडे। इस युद्ध मे हाडा राजपूतो ने अपनी असीम वीरता का प्रदर्शन किया। लेकिन दो शूरवीरो ने उस समय अपनी जिस राजभक्ति का परिचय दिया, उसका यहाँ पर उल्लेख करना आवश्यक मालूम होता है। वह राजभक्ति ग्रीस और रोम के प्राचीन वीरों की वीरता से किसी प्रकार कम नहीं मानी जा सकती। पहले यह युद्ध एक ऊंचे मैदान में आरम्भ हुआ था। लेकिन अन्त मे युद्ध करती हुई सेनाये एक ऐसे स्थान पर पहुँच गयीं, जो संकीर्ण था और क्रमश: ऊंचा होता गया था। जालिम सिह की सेना उस संकीर्ण स्थान से होकर जब जा रही थी, एकाएक नदी की दूसरी तरफ की एक ऊंची भूमि से गोलियाँ आकर उस पर पडी 320