पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/३७४

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इन स्थानो की यात्रा करके बिना किसी अधिक परिश्रम के मैंने अपने काम की सामग्री प्राप्त कर ली है। इस सामग्री के संकलन में मुझे अपने कर्मचारियो से बड़ी सहायता मिली है। इस कार्य के लिए जिन पण्डितो को मंने नियुक्त किया है, वे रोजाना शाम को लौटकर मिली हुई सामग्री मुझे देते हैं। जहाँ कहीं मैं जरूरत समझता हूँ, इस सामग्री की खोज में मैं स्वय जाता हूँ। किसी कारणवश जहाँ मैं नहीं पहुंच सकता, वहाँ पर मैं अपने योग्य और विश्वासपात्र आदमियो को भेजता हूँ, यहाँ पर इन बातों को लिखने का मेरा उद्देश्य यह है कि भविष्य में जो लोग यहाँ पर अनुसन्धान का कार्य करेंगे, उनको मेरे इस वर्णन से कदाचित् बहुत कुछ मदद मिलेगी। 29 अक्टूबर-ग्यारह मील का रास्ता पार करके इन्दुरा नामक स्थान में हम लोगो ने मुकाम किया। वहाँ पर लूनी नदी प्रवाहित होती है। इसका जल नमकीन होने के कारण उसका नाम लूनी नदी पड़ा है। यह स्थान उस नदी के किनारे पर वसा हुआ है और गोड़वाड़ा राज्य की वह सीमा है। वहाँ से मेवाड़ एक तरफ और मारवाड़ दूसरी तरफ पड़ता है। इस सीमा पर खड़ा हुआ पीले आवले का वृक्ष दोनों राज्यो की सीमा का परिचय देता है। मारवाड़ की तरफ देखने से बहुत दूर तक केवल बालू के मैदान दिखायी देते हैं। मेवाड़ की दशा दूसरी ही है, उसकी तरफ से विभिन्न प्रकार के वृक्षो का दृश्य और प्रकृति का सौन्दर्य बहुत दूरी तक दिखायी देता है। इस दृश्य को देखकर मुझे कवि की कविता याद आ गयी। वह कविता मैंने राणा के दूत कृष्णदास को कई बार सुनायी थी और उसे सुनकर कृष्णदास ने कहा था : प्रकृति ने स्वयं इन दोनो राज्यों की सीमा का निरूपण कर दिया है। जो कविता मुझे याद आई, वह इस प्रकार है : "आखाँरा झोपड़ा, फोगांरी वाड बाजरारी रोटी, मोठारी दाल, देखिये हो राजा तेरी मारवाड़।" गाँव का निर्माण एक विशेषता के साथ हमने यहाँ देखा। प्रत्येक गाँव के आस-पास काँटों का एक घेरा बना हुआ है और उस घेरे के ऊपर तक भूसे के साथ इस प्रकार ढ़का है कि वह दूर से एक दुर्ग-सा मालूम होता है। ऐसे कुछ मौके आते हैं, जब किसानों को अपने पशुओ को खिलाने की कोई चीज नहीं मिलती तो वे इसी भूसे को अपने पशुओं को खिलाने के काम में लाते है। इस प्रकार के अवसर या तो वर्षा के दिनों मे आते हैं अथवा उन दिनों में जब उनके खेतो मे फसल खडी होती है। यहाँ के किसान अपने इस भूसे को सुरक्षित रखने के लिए एक खास तरीका प्रयोग मे लाते हैं। भूसे की ऊँचाई तेरह हाथ, पन्द्रह हाथ अथवा बीस हाथ बनाकर मिट्टी और गोवर से लीप देते है और उसकी रक्षा के लिए कॉटे लगा देते है। मिट्टी और गोवर लगाने से वह भूसा दस वर्ष तक खराब नही होता और वह पशुओ के खाने के योग्य बना रहता है। कभी दुष्काल के पडने पर जब उनके खेत मे कोई पैदावार नहीं होती तो किसानों के पशु इसी भूसे को खाकर जिन्दा रहते हैं। 11 368