पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/४२७

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- अहवा के सामन्त को उसकी यह बात अच्छी न लगी। इसलिये उसका उत्तर देते हुए उसने निर्भीकता के साथ कहा था : "अपने पक्ष के लिये कोई भी अपनी शक्ति को उठा नहीं रखता।" साले और बहनोई में इस प्रकार की बातचीत मेड़ता के इस युद्ध के पहले हुई थी। उसके बाद युद्ध की तैयारी हुई और उस संग्राम में दोनो ने अलग-अलग पक्षों का समर्थन किया और एक दूसरे के विरुद्ध इस प्रकार वे लड़े कि फिर वे एक दूसरे को देख न सके। इस युद्ध की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें लड़ने वाले दोनों पक्षों के लोग एक दूसरे के सगे थे। यह युद्ध मेड़ता से कुछ दूरी पर जिस विस्तृत मैदान में हुआ था, उसके निकट कोई छोटा या बडा ग्राम नहीं है। उस विस्तृत भूमि पर जहाँ पर यह युद्धा हुआ था, युद्ध में मारे जाने वाले वीरों के अब केवल स्मारक देखने को मिलते हैं। जो राजपूत जिस श्रेणी का था, उसका स्मारक उसी श्रेणी का बनवाया गया है। लेकिन स्मारक, एक स्मारक होता है, चाहे वह छोटा हो, अथवा बडा। मैंने वहाँ पर बने हुए स्मारकों को देखा और वीस स्मारकों के लिखे हुए पत्थरों की मैंने नकल ले ली। उन पत्थरों पर जो कुछ लिखा है, उनसे राजपूतों की वीरता का परिचय मिलता है। इस युद्ध में पराजित होने के बाद रामसिंह ने मेड़ता नगर में जाकर आश्रय लेने का निश्चय किया। परन्तु शत्रु की विशाल सेना से मैड़ता में सुरक्षित रहने और वच सकने का उसको विश्वास न हुआ। इसलिये अब उसके सामने प्रश्न यह था कि वख्तसिंह की शक्तिशाली सेना से अपनी रक्षा कैसे की जाये। उसके सामने अपने सम्मान और प्राणों का भय था। इसलिये उसने सभी प्रकार की बातें सोच डाली। उन दिनों में मराठों की शक्तियाँ प्रबल हो रही थीं। रामसिंह ने उनकी सहायता लेकर अपने चाचा बख्तसिंह को परास्त करने का निश्चय किया और अपनी वची हुई सेना को लेकर वह दक्षिण चला गया। उज्जैन नगर में पहुंचकर उसने मराठा सेनापति जयअप्पा सिंधिया से मुलाकात की और बख्तसिंह को पराजित करने के लिये वह सेनापति सिंधिया से परामर्श करने लगा। युद्ध से रामसिंह के भाग जाने के बाद वख्तसिंह अपनी सेना को लेकर जोधपुर में पहुंचा और मारवाड़ के सिंहासन पर बैठकर उसने अपने राजा होने की चोपणा की। इसके बाद उसे मालूम हुआ कि रामसिंह सहायता के लिये मराठों के पास गया है। इसलिये उसने वड़ी दूरदर्शिता से काम लिया और वह जयपुर राज्य की तरफ इस इरादे से रवाना हुआ कि वहाँ से रामसिह के ससुर जयपुर के राजा मराठों के आने पर किसी प्रकार की सहायता न दे सकें। उन दिनों में ईश्वरी सिंह जयपुर का राजा था। वह बख्तसिंह की वीरता से भली भॉति परिचित था। इसलिए जव बख्तसिंह ने उससे मुलाकात की और सारी बातें उसने उसके सामने रखी तो ईश्वरी सिंह के सामने एक विपम परिस्थिति पैदा हो गयी। ऐसे अवसर पर क्या करना चाहिये? वह इस वात का निर्णय न कर सका। उसके सामने एक भयानक समस्या थी। 423