पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/११०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मेवाड़ का इतिहास प्रारम्भ से राजा शिलादित्य तक का इतिहास अध्याय-11

यहाँ से राजस्थान के राज्यों का इतिहास आरम्भ होता है और उनका श्री गणेश मेवाड़ से किया जायेगा। राणा यहाँ के राजाओं की पदवी है और उनका वंश सूर्य वंश की बड़ी शाखा है। छत्तीस राजवंशों में इस वंश का सबसे श्रेष्ठ स्थान है और उसकी पवित्रता एवम् निर्मलता में कभी किसी को कुछ कहने का साहस नहीं हो सकता। सम्पूर्ण राजस्थान आठ भागों में विभाजित है और वे आठों भाग इस प्रकार पहला मेवाड़ अथवा उदयपुर, दूसरा मारवाड़ अथवा जोधपुर, तीसरा बीकानेर अथवा किशनगढ़, चौथा कोटा, पाँचवाँ बूंदी, (ये दोनों हड़ावती के नाम से भी प्रसिद्ध हैं) छट आमेर अथवा जयपुर, सातवाँ जैसलमेर और आठवाँ भारतवर्ष की मरुभूमि । इन आठों में मेवाड़ और जैसलमेर अपनी प्राचीनता के लिये अधिक प्रसिद्ध हैं। भारतवर्ष की स्वाधीनता पर आक्रमण होते हुए लगभग आठ सौ वर्ष बीत चुके हैं परन्तु मेवाड़ का गौरव अब तक सुरक्षित है। समय के प्रभाव से उसके बहुत से स्थानों का विनाश हुआ है, परन्तु उसका विस्तार और आकार-प्रकार आज भी ज्यों का त्यों है। जिन प्राचीन पुस्तकों में मेवाड़-राज्य के ऐतिहासिक विवरण मिलते हैं, उनमें जयविलास, राजरत्नाकर और राज विलास अधिक महत्वपूर्ण हैं। इनके अतिरिक्त खुमान रासो, मामदेव परिशिष्ट और कितने ही जैन तथा भट्ट ग्रंथों में मेवाड़ के विवरण पाये जाते हैं। इन ग्रंथों में बहुत से मतभेद भी हैं। फिर भी सावधानी के साथ अध्ययन करने से उनके ऐतिहासिक सत्य को खोज कर निकाला जा सकता है और हमने यही किया भी है। भट्ट ग्रंथों में कनकसेन को मेवाड़ का प्रतिष्ठाता माना गया है। उन ग्रन्थों के अनुसार कनकसेन का मूल स्थान भारत के उत्तर में था और वहाँ से वह सम्वत् 201 और सन् 145 ईसवी में सौराष्ट्र में आ गया था। अयोध्या - जिसे आज अवध कहा जाता है- प्रसिद्ध राम की राजधानी थी। राम के दो बेटे थे लव और कुश । राणा का वंश अपने आपको लव का वंशज मानता है। कहा जाता है कि लव ने लोटकोट (लोह कोट) नामक नगर बसाया था; जिसे अब लाहौर कहा जाता है । इस लोटकोट में मेवाड़ राज्य के पूर्वज उस समय तक रहते रहे, जब तक कनकसेन उसे छोड़कर द्वारका नहीं चला आया। लोटकोट से चलकर वे किस रास्ते से सौराष्ट्र पहुँचे, इसका कोई विवरण नहीं मिलता। कनकसेन ने परमार राजा को पराजित करके उसके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया था और उसके बार दूसरी शताब्दी सन् 144 ईसवी में उसने वीर नगर की स्थापना की थी। चार पीढ़ी के बाद 110