सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/१२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बिना किसी बात की प्रतीक्षा किये चिता तैयार करवाई और उसमें अपने पति के साथ जलकर भस्म हो गयी। इसके बाद गजनी की विजयी सेना ने दिल्ली में प्रवेश किया और उसको अपने अधिकार में लेने के बाद शहाबुद्दीन की सेना ने देशद्रोही जयचंद के राज्य कन्नौज पर आक्रमण किया। जयचंद घबराकर कन्नौज से भागा और नाव पर बैठकर वह गंगा नदी को पार कर रहा था। दुर्भाग्य के प्रकोप से नाव गंगा में डूब गयी और जयचंद का वहीं पर अंत हो गया। पृथ्वी पर ऐसी कौन-सी जाति है जो शौर्य, धैर्य, पराक्रम और जीवन के ऊंचे सिद्धान्तों में राजपूत जाति की बराबरी कर सके? सैकड़ों वर्ष तक विदेशी आक्रमणकारियों के अत्याचारों को सहकर और भीषण सर्वनाश को पाकर राजपूत जाति ने जिस प्रकार अपने पूर्वजों की सभ्यता को अपने जीवन में सुरक्षित रखा है, उसकी समता विश्व की कोई भी जाति नहीं कर सकती, इस बात को तो मानना ही पड़ेगा। यह बात जरूर है कि राजपूतों का स्वभावतः निडर और स्वाभिमानी होते हुए अपने सम्मान और गौरव की रक्षा करने में प्राणों का उत्सर्ग करना उनके लिए साधारण बात होती है। वास्तव में एक वीर जाति के लिए इस प्रकार की बातें उसके गौरव की वृद्धि करने वाली होती हैं । राजपूत शत्रु के साथ युद्ध करने में पराजित होकर भागने की अपेक्षा मृत्यु का सामना करने में अपने जीवन का महत्व समझते हैं, उनकी समता संसार की वे जातियाँ नहीं कर सकतीं, जो अवसरवादी होने का लाभ उठाती हैं। राजपूत किसी प्रकार अवसरवादी नहीं कहे जा सकते । इसका प्रमाण उनके हजारों वर्षों का इतिहास है। प्रत्येक राजपूत शरण में आये हुए शत्रु की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझता है, जीवन के इस महत्वपूर्ण सिद्धान्त की श्रेष्ठता कौन स्वीकार न करेगा? राजस्थान के इतिहास की सभी घटनायें अपने जीवन की अलग-अलग मर्यादा रखती हैं। कन्नौज के राठौड़ राजपूतों ने कुछ दूसरे राजाओं के साथ मिलकर जाति द्रोह और देशद्रोह किया। उसका परिणाम उनके सिर पर आया। कन्नौज का पतन हुआ। अनहिलवाड़ा पट्टन का केवल नाम बाकी रह गया और जिन दूसरे राज्यों ने जातिद्रोह करके विदेशी शत्रु का साथ दिया, उनके नाम पर अनन्तकाल के लिए देशद्रोह का कलंक लगा। पृथ्वीराज की युद्ध में पराजय हुई। परन्तु उसका नाम सदा-सर्वदा के लिए इस देश के इतिहास में अमर हो गया। समरसिंह के जीवन का अंत हुआ परन्तु उसका यश और प्रताप इतिहास के पन्नों में अमिट अक्षरों से लिखा गया। राजस्थान के इस प्रकार के अगणित उदाहरण इस बात की शिक्षा देते हैं कि देश और धर्म पर बलिदान होने वालों की सदा पूजा होती है। समरसिंह के युद्ध में मारे जाने पर उसकी रानी पृथा उसके साथ सती हो गयी थी और उसका बेटा कर्णसिंह उस समय नाबालिग था। समरसिंह के कई छोटे बेटे थे। लेकिन कर्णसिंह ही उसका उत्तराधिकारी था। उसके नाबालिग होने के कारण समरसिंह की दूसरी रानी कर्मदेवी ने-जो विधवा हो चुकी थी - राज्य का प्रबन्ध अपने हाथ में लिया और बड़ी योग्यता के साथ उसने अपने राज्य में शासन किया। उसके शासन काल में कुतुबुद्दीन ने मेवाड़ पर आक्रमण किया। रानी कर्मदेवी ने शत्रु का मुकाबला करने के लिए युद्ध की तैयारी की और स्वयं घोड़े पर सवार होकर अपनी सेना के साथ युद्ध करने के लिए गयी । उसके साथ नौ राजा और ग्यारह शूरवीर सामन्त अपनी सेनाओं के साथ कर्मदेवी की सहायता के लिए युद्ध करने के लिए गये । आमेर के पास दोनों ओर की सेनाओं का आमना-सामना हुआ और युद्ध आरम्भ हो गया। उस संग्राम में कुतुबुद्दीन की पराजय हुई। वह घायल होकर भागा। रानी कर्मदेवी की विजयी सेना शत्रु को भगाकर लौट आयी। 129