गुहिलोत वंश के नाम से प्रसिद्ध था। राजा राहुप के समय से यह वंश सिसोदिया वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। दूसरा परिवर्तन यह हुआ कि गुहिलोत वंश के राजाओं की उपाधि अब तक रावल थी। राजा राहुप के समय से वहाँ के राजा राणा के नाम से प्रसिद्ध हुए। राणा उपाधि का रहस्य यह है कि राजा राहुप के शत्रुओं में मण्डोर का परिहार राजा मुकुल भी एक था। राणा उसकी उपाधि थी और वह राणा मुकुल के नाम से पुकारा जाता था। राजा राहुप ने अपनी सेना लेकर मण्डोर पर आक्रमण किया और मुकुल को उसकी राजधानी से कैद करके सिसोदिया में ले आया। उसके बाद उसका जोदवाड़ नामक नगर तथा राणा की उपाधि लेकर उसको छोड़ दिया और राहुप ने स्वयं उस समय से राणा की .उपाधि धारण की। अड़तीस वर्ष तक बड़ी योग्यता के साथ राहुप ने राज्य किया। उसके बाद उसकी मृत्यु हो गई। राहुप के सिंहासन पर बैठने के समय मेवाड़ की परिस्थिति अच्छी नहीं थी। राजा की राजनीतिक शक्तियाँ बहुत कुछ छिन्न-भिन्न हो गई थीं। राहुप ने बुद्धिमानी के साथ बिखरी हुई निर्बल शक्तियों को शक्तिशाली बनाया और अनेक अच्छाइयों के लिये प्रसिद्ध हुआ। राजा राहुप से लेकर लक्ष्मणसिंह तक अर्द्ध शताब्दी में नौ राजा चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठे । उनका शासनकाल लगभग एक दूसरे के बरावर रहा। उनमें छह राजा युद्ध में मारे गये । म्लेच्छों ने गया में आक्रमण किया था और अपने तीर्थ स्थान गया की रक्षा करते हुए उन छह राजाओं ने अपने प्राणों की आहुतियाँ दीं। उन छह राजाओं में पृथ्वीमल का नाम अधिक विख्यात है। उसके बाद अलाउद्दीन के समय तक फिर वहाँ कोई अशान्ति पैदा नहीं हुई। परन्तु इस बीच में एक बार चित्तौड़ कुछ दिनों के लिये राजपूतों के हाथ से निकल कर शत्रुओं के अधिकार में चला गया था और फिर सीसोदिया वंश के भानुसिंह ने अपने शासन काल में चित्तौड़ का उद्धार कर राणा की उपाधि धारण की थी। भानुसिंह के दूसरे बेटे का नाम चन्द्र था। उसके वंश के लोग चन्द्रावत नाम से प्रसिद्ध हैं। यह वंश मेवाड़ के सामन्तों में बहुत पराक्रमी समझा जाता है । राजा राहुप और लक्ष्मणसिंह के मध्यवर्ती समय में जो राजा हुए थे, उनके शासन काल में आक्रमणकारियों के उपद्रव अधिक बढ़ गये थे और बाहरी शक्तियों ने समय-समय पर आक्रमण करके अच्छे-अच्छे नगरों और तीर्थ स्थानों का सर्वनाश किया था। लेकिन उस समय के विवरण जो भट्ट ग्रन्थों में पढ़ने को मिलते हैं, उनमें कोई ऐतिहासिक सामग्री नहीं पाई जाती। उस समय के विवरण कुछ ऐसे ढंग से लिखे गये हैं, जिनको पढ़ कर कई प्रकार के संशय उत्पन्न होते हैं और एक ही प्रकार के उल्लेख उस समय के उन ग्रंथों में बार-बार लिखे गये हैं। इसलिये उनके सम्बन्ध में यहाँ पर कुछ अधिक नहीं लिखा गया । 131
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